Radha and Krishna




आम तौर पर राधा और कृष्ण को प्रेम (Love) के प्रतिक के रूप में देखा जाता है लेकिन यथार्थ यह है की कृष्ण और राधा में केवल बाल्यावस्था की बालसुलभ मित्रता थी. भलेही आज हमारे देखने में राधा-कृष्ण की युवावस्था की प्रतिमा (मूर्ति) या चित्र (फोटो) आते हो लेकिन वास्तविकता यह है की कृष्ण और राधा की उनके युवा अवस्था में कभी मुलाकात तक नहीं हुई है. कृष्ण की अपनी 9 वर्ष की ऊम्र के बाद कृष्ण और राधा की कभी मुलाकात भी नहीं हुई और ना ही ऐसा कोई तथ्य है की कृष्ण ने राधा का कहीं जिक्र किया हो. श्रीमद भागवत में एक बार भी कही 'राधा' यह नाम, यह शब्द तक नहीं है.

दूसरी बात राधा किसी और की पत्नी थी, राधा कृष्ण की नहीं बल्कि किसी और की विवाहिता थी ऐसे में राधा-कृष्ण के बालसुलभ मित्रता को प्रेमी या पति-पत्नी की तरह के प्रेम के रूप में दिखाना या देखना ना सिर्फ राधा की बदनामी करना है बल्कि भगवान कृष्ण को भी चरित्रहीन ठहराना है. धर्मसंस्थापनार्थाय अवतार लेनेवाले भगवान श्री कृष्ण और राधा ('राधा' जो की कृष्ण की नहीं बल्कि किसी और की पत्नी है) को 'प्रेम' का प्रतिक बताना यह केवल गलत ही नहीं है बल्कि पाप है, अधर्म है. राधा को 'भक्ति' का प्रतिक माना जा सकता है, 'श्रद्धा' का प्रतिक माना जा सकता है लेकिन राधा और कृष्ण को 'प्रेम' (वैसा प्रेम जो विवाह से पूर्व में प्रेमी-पेमिका में होता है या जो प्रेम पति-पत्नी में होता है) का प्रतिक तो कतई नहीं माना जा सकता. राधा-कृष्ण के चित्र में ज्यादातर उन्हें ऐसे ही विवाह से पूर्व की प्रेमी-पेमिकावाले या पति-पत्नीवाले प्रेम के रूप में दिखाया जाता है. राधा-कृष्ण की मूर्ति में भी वह बाल्य-अवस्था के नहीं बल्कि 'युवा' दिखाते है जो की सर्वथा वास्तविकता से परे है.

संत मीरा बाई और राधा यह दोनों ही श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थी लेकिन कृष्ण की समकालीन होने के कारन शायद राधा को कृष्ण की प्रेमिका के रूप में दिखाना, दिखानेवालों के लिए ज्यादा श्रेयस्कर रहा हो. भारत की संस्कृति में 'चरित्र' को बहुत महत्त्व दिया जाता रहा है और यही भारतीय संस्कृति के सनातन रहने का कारन है, 'चरित्र' ही है जो भारतीय संस्कृति का मजबूत स्तम्भ है. विवाह और परिवारवाली जीवनपद्धति भारतीय संस्कृति का आधारस्तम्भ रही है. शायद इसी आधारस्तम्भ को समाप्त करके पाश्चिमात्य जीवनपद्धति को भारत में फैलाकर भारत की संस्कृति को समाप्त करने की यह एक सोची-समझी साजिश ही लगती है.

भारतीय पौराणिक साहित्य में प्रेम को अनदेखा या दुर्लक्षित नहीं किया गया है. महादेव और पार्वती के प्रेम-प्रसंगो से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है. महादेव-पार्वती प्रेमी-प्रेमिका एवं पति-पत्नी के रूप में प्रेम के वैश्विक प्रतिक है, लेकिन महादेव-पार्वती का प्रेम भारतीय संस्कृति के अनुकूल है जिनके प्रेम की परिणीति विवाह है और राधा-कृष्ण का प्रेम जो दर्शाया जाता है वह पाश्चिमात्य संस्कृति की तरह लिव-इन-रिलेशनशिप की संकल्पना जैसा है. शायद इसीलिए महादेव-पार्वती के बजाय राधा-कृष्ण के प्रेम को महत्त्व दिया गया जिससे की भारतीय संस्कृति को तहस-नहस किया जा सके. राधा-कृष्ण का प्रेम (जो की कभी भी प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी जैसा प्रेम था ही नहीं) को प्रचारित कर के समाज में कौनसी धारणा का प्रसार किया जा रहा है? समाज को क्या सन्देश दिया जा रहा है?

राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के आदर्श के रूप में स्थापित करना यह भारत की संस्कृति को तहस-नहस करने की साजिश -प्रेमसुखानंद माहेश्वरी







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