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Mahesh Navami Special | माहेश्वरी समाज की महेशाचार्य परंपरा | Adi Maheshacharya Maharshi Parashar | Maheshwari Samaj Ki Maheshacharya Parampara | Maheshacharya | Guru Purnima

Mahesh Navami and Guru Purnima Special - Maheshacharya tradition of the Maheshwari Community (in English & Hindi)


Maheshacharya (महेशाचार्य) is a religious title used for the peethadhipati of Divyshakti Yogpeeth Akhara (which is known as Maheshwari Akhada is famous). The word "Maheshacharya" is composed of two parts, Mahesha and Acharya. Acharya is a Sanskrit word meaning "teacher", so Maheshacharya means "teacher", who teaches the path shown by Lord Mahesha (Lord Shiva). Maheshacharya post/designation is the post of religious leadership of Maheshwari community. This post "Maheshacharya" is considered to be the most prestigious post of Maheshwari community. The title is derived from Adi Maheshacharya Maharshi Parashar (First Peethadhipati of Maheshwari Gurupeeth), the Maheshwari Gurus in the successive series of Gurus coming from his time are known as "Maheshacharya". The first Peethadhipati of Maheshwari Gurupeeth was Maharshi Parashar, hence Maharshi Parashar is "Adi Maheshacharya". Presently Yogi Premsukhanand Maheshwari is the Peethadhipati of Divyshakti Yogpeeth Akhara (Maheshwari Akhada) and Maheshacharya.



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महेशाचार्य यह माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च गुरुपीठ "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो की 'माहेश्वरी अखाड़ा' के नाम से प्रसिद्ध है)" के आधिकारिक मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली धार्मिक उपाधि है। महेशाचार्य शब्द दो भागों से बना है, महेश और आचार्य। आचार्य एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है "शिक्षक", इसलिए महेशाचार्य का अर्थ है "शिक्षक", जो भगवान महेश (भगवान शिव) द्वारा दिखाए गए मार्ग को सिखाते हैं। महेशाचार्य यह माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च धार्मिक नेतृत्व का पद है। यह उपाधि आदि महेशाचार्य महर्षि पराशर (माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति) से ली गई है; उनके समय से चले आ रहे गुरुओं की क्रमिक श्रृंखला के गुरुओं को "महेशाचार्य" के नाम से जाना जाता है। माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति महर्षि पराशर थे इसलिए महर्षि पराशर "आदि महेशाचार्य" है। वर्तमान में योगी प्रेमसुखानंद माहेश्वरी "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (माहेश्वरी अखाड़ा)" के पीठाधिपति और महेशाचार्य हैं।




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माहेश्वरी अखाड़ा के पीठाधिपति होने के नाते महेशाचार्य के सभी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों और विश्व के किसी भी देश में बसनेवाले माहेश्वरी समाजजनों को एकता के सूत्र में बांधकर माहेश्वरी समाज के मूल सिद्धांत "सर्वे भवन्तु सुखिनः" को सार्थ करते हुए समाज को गौरव के सर्वोच्च शिखर पर स्थापित रखना है, कायम रखना होता है। महेशाचार्य प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज सनातन धर्म की रक्षा, माहेश्वरी संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान, उसके मूल्यों और गौरव को बनाए रखने के लिए जी-जान से कार्यरत है। वो देशभर में समाजजनों से संवाद साधकर सामाजिक एकता, सुरक्षा, प्रगति, स्वास्थ्य, शिक्षा और मूल्यों का महत्व, गौ-रक्षा, महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण की समस्याएं और उनके समाधान पर संबोधित कर रहे हैं। वह 'दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (माहेश्वरी अखाड़ा)' के माध्यम से एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत, आत्मनिर्भर समाज बनाने, समाज और राष्ट्र की एकता को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से काम कर रहे हैं।

माहेश्वरी अखाड़ा (जिसका आधिकारिक नाम दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा है) माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च धार्मिक गुरुपीठ है, माहेश्वरी समाज की शीर्ष/सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक प्रबंधन संस्था है। वैसे तो माहेश्वरी गुरुपीठ की परंपरा 5000 वर्ष से भी ज्यादा पुरातन है। जब ईसवी सन पूर्व 3133 में, ज्येष्ठ शुक्ल नवमी के दिन भगवान महेश जी ने माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति/उत्पत्ति की थी, इसी दिन को माहेश्वरी समुदाय माहेश्वरी समाज के स्थापना दिवस के रूपमें तथा महेश नवमी के नाम से मनाता है। तब माहेश्वरी समुदाय के स्थापना के साथ साथ ही भगवान महेशजी ने माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करने का दायित्व 6 गुरुओं (ऋषियों) को सौपा था; इन्ही 6 गुरुओं द्वारा माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा की शुरुआत की गई थी लेकिन समय चक्र में यह माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा विघटित हो गई। वर्ष 2008 में माहेश्वरी समाज के इस सर्वोच्च गुरुपीठ को कानूनी एवं आधिकारिक तौर पर "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के नाम से पुनः स्थापित किया गया। आधिकारिक स्थापना के समय इसका नाम "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" दर्ज किया गया था, लेकिन यह "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से प्रसिद्ध है, लोकप्रिय है। माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा) के पीठाधिपति "महेशाचार्य" की उपाधि से अलंकृत होते है। केवल माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च गुरुपीठ "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के अध्यक्ष (पीठाधिपति) ही "महेशाचार्य" की उपाधि से अलंकृत होने के अधिकारी है / आधिकारिक रूप से अधिकृत है।


संक्षेप में कहें तो, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति इतिहास के अनुसार ऋषियों के शाप के कारन मृत/पत्थरवत पड़े हुए 72 क्षत्रिय उमरावों को भगवान महेशजी के वरदान से ऋषियों के शाप से मुक्ति मिली, नया जीवन मिला। नया जीवन देने के बाद, देवी पार्वती द्वारा अनुरोध करने पर भगवान महेशजी ने उन 72 क्षत्रिय उमरावों को वरदान देकर नया जीवन दिया था इसलिए महेशजी ने उन्हें देवी महेश्वरी (देवी पार्वती) के नाम पर, देवी महेश्वरी की छाप हमेशा उनपर रहे इसलिए "माहेश्वरी" यह एक नया नाम, नई पहचान भी दी। भगवान महेशजी ने उन्हें युद्धकर्म छोड़कर व्यापार कर्म करने का आदेश दिया। इसीके साथ लक्ष्मी-कुबेर भंडारी भगवान महेशजी ने माहेश्वरीयों को व्यापार में खूब तरक्की और बरकत का भी वरदान दिया। साथ ही माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने ऋषि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को सौपा (परंपरागत माहेश्वरी वंशोत्पत्ति चित्र/फोटो में उन 6 ऋषियों को बैठे हुए दिखाया गया है)। कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है। इन माहेश्वरी गुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रबंधन और मार्गदर्शन का कार्य सुचारू रूप से चले इसलिए एक 'गुरुपीठ' को स्थापन किया जिसे "माहेश्वरी गुरुपीठ" कहा जाता था। गुरुपीठ के पीठाधिपति “महेशाचार्य” की उपाधि से अलंकृत थे, इसलिए उन्हें "महेशाचार्य" कहा जाता था। "महेशाचार्य" यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद माना जाता था। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के माध्यम से समाजगुरु माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करते थे। गुरुओं ने गुरुपीठ के माध्यम से अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी का निर्वाहन करते हुए माहेश्वरी समाज की "वे ऑफ़ लाइफ" के लिए एक आचारसंहिता और नियमावली को बनाया। समाज की विशिष्ठ पहचान कायम रहे इसलिए माहेश्वरी समाज का धार्मिक प्रतीकचिन्ह और ध्वज का सृजन किया, निर्माण किया। 72 उमरावों की नए नाम (सरनेम) से 72 खांपे बनाई। अगले कुछ वर्षों में इन्ही गुरुओं ने माहेश्वरी गुरुपीठ के तत्वावधान में अन्य समाज के पांच परिवारों को माहेश्वरी समाज में शामिल किया, माहेश्वरी बनाया। इससे माहेश्वरी खापों की संख्या 77 हो गई। वंशोत्पत्ति के बाद कुछ शतकों तक यह गुरुपीठ परंपरा चलती रही, लेकिन समय के प्रवाह में माहेश्वरी गुरुपीठ की यह परंपरा खंडित हो गई। इसी माहेश्वरी गुरुपीठ की खंडित हुई परंपरा को योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी ने वर्ष 2008 में कानूनी एवं आधिकारिक तौर पर "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के नाम से पुनः स्थापित किया है। धार्मिक विधाओं और रीती-रिवाजों के अनुसार आधिकारिक स्थापना के समय इसका नाम "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" दर्ज किया गया था, लेकिन यह "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से प्रसिद्ध है, लोकप्रिय है।

दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो की "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से प्रसिद्ध है) के मुखिया/पीठाधिपति के अतिरिक्त भी भारत में कुछ अन्य लोग "महेशाचार्य" पद लगाने वाले मिलते हैं जो माहेश्वरी समाज की परंपरागत परम्परानुसार नहीं बल्कि स्वैच्छिक हैं। वास्तविक/असली महेशाचार्य "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो की 'माहेश्वरी अखाड़ा' के नाम से प्रसिद्ध है)" के पीठाधिपति पद पर आसीन को ही माना जाता है।

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माहेश्वरी समाज के धार्मिक नेतृत्व करनेवाले माहेश्वरी गुरुपीठ (माहेश्वरी अखाड़ा) की कार्य व्यवस्था-


माहेश्वरी उत्पत्ति कथा के अनुसार माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने ऋषि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को सौपा। कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है। इन सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रबंधन-मार्गदर्शन का कार्य सुचारू रूप से चले इसलिए एक 'गुरुपीठ' को स्थापन किया जिसे "माहेश्वरी गुरुपीठ" कहा जाता था। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) है। सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) और ध्वज का सृजन किया। ध्वज को "दिव्य ध्वज" कहा गया। दिव्य ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी। गुरुपीठ के पीठाधिपति “महेशाचार्य” की उपाधि से अलंकृत थे। महेशाचार्य- यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद है। महर्षि पराशर माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति है और इसीलिए महर्षि पराशर "आदि महेशाचार्य" है। अन्य ऋषियों को 'आचार्यश्रेष्ठ' इस अलंकरण से जाना जाता था। गुरुपीठ माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र माना जाता था। माहेश्वरीयों से सम्बन्धीत किसी भी आध्यात्मिक-सामाजिक विवाद पर गुरुपीठ द्वारा लिया/किया गया निर्णय अंतिम माना जाता था।

कालांतर में गुरुपीठ के स्थायित्व के लिए सप्तगुरुओं द्वारा महेशाचार्य, महाचार्य, आचार्यश्रेष्ठ, आचार्य, समाचार्य, पुजारी/पुरोहित और गण की श्रेणियों को परिभाषित किया गया-

महेशाचार्य- महेशाचार्य माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। महेशाचार्य माहेश्वरी समाज में सर्वोच्च समाज गुरु (धर्म गुरु) का पद है।

महाचार्य- माहेश्वरी गुरुपीठ के पीठाधिपति (महेशाचार्य) द्वारा घोषित उनका उत्तराधिकारी।

आचार्यश्रेष्ठ- पीठाधिपति (महेशाचार्य) और महाचार्य के आलावा अन्य पांच माहेश्वरी गुरु। ये पीठाधिपति के सलाहकार मंडल के रूप में कार्य करते है।

आचार्य- अपने अध्ययन, ज्ञान, अनुभव और कार्य के आधारपर समाज के लिए आवश्यक एवं उपयोगी भिन्न-भिन्न विषयों पर समाज को मार्गदर्शित करने का कार्य करते है।

समाचार्य- किसी विशेष विषय के अपने अध्ययन, ज्ञान, अनुभव और कार्य के आधारपर समाज के लिए समय-समयपर आवश्यक एवं उपयोगी मार्गदर्शन करनेवालें समाचार्य (आचार्य के समान) है।

पुजारी/पुरोहित- मिन्दरों में, यजमान के घर, व्यावसायिक स्थान पर अथवा तीर्थस्थान पर यजमान के लिए पूजा-अर्चनादि विधियों को संपन्न करनेवाले।

गण- गण अर्थात शिष्य अथवा दूत। गण अर्थात किसी समान उद्देश्य वाले लोगों का समूह (यहाँ पर माहेश्वरी वंश के (समस्त जनसामान्य) लोगों के लिए 'गण' शब्द का प्रयोग किया गया है)।

गुरुपीठ ने विधान बनाया की कोई भी ब्राम्हर्षि/माहेश्वरी, गुरुपीठ द्वारा निर्धारित विधि के अनुसार, अपने अध्ययन, ज्ञान, अनुभव, कार्य और सदाचार के आधारपर महाचार्य, आचार्यश्रेष्ठ, आचार्य, समाचार्य अथवा पुजारी/पुरोहित बन सकता है। गुरुपीठ ने महेशाचार्य, महाचार्य, आचार्यश्रेष्ठ और आचार्य को गुरु की श्रेणी में और अन्य सभी को शिष्य की श्रेणी में रखा। समाज को अनवरत मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे इसलिए यह समाज के लिए किया गया बहुत बड़ा, ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य है।

कई शतकों तक गुरु मार्गदर्शित व्यवस्था बनी रही। तथ्य बताते है की प्रारंभ में 'गुरुमहाराज' द्वारा बताई गयी नित्य प्रार्थना, वंदना (महेश वंदना), नित्य अन्नदान, करसेवा, गो-ग्रास आदि नियमोंका समाज कड़ाई से पालन करता था। फिर मध्यकाल में भारत के शासन व्यवस्था में भारी उथल-पुथल तथा बदलाओंका दौर चला। दुर्भाग्यसे जिसका असर माहेश्वरीयों की सामाजिक व्यवस्थापर भी पड़ा और जाने-अनजाने में माहेश्वरी समाज के लोग अपने गुरुपीठ और गुरूओं को भूलते चले गए जिससे स्वयं भगवान महेशजी ने माहेश्वरी समाज को उचित मार्गदर्शन करने के लिए बनाई हुई व्यवस्था (माहेश्वरी समाजगुरु की व्यवस्था) ही समाप्त हो गई। जिसके कारन- समाज के गुरुओं द्वारा समाज को मिलनेवाले धार्मिक-आध्यात्मिक मार्गदर्शन के आभाव में समाज का बड़ा नुकसान हो रहा था, समाज की बहुत बड़ी क्षति हो रही थी, दुर्गति हो रही थी। समाज का धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक ढांचा बिखरता जा रहा था।

काल के प्रवाह में माहेश्वरी समाज को मार्गर्दर्शित करनेवाली इस खंडित हुई माहेश्वरी गुरुपीठ और माहेश्वरी समाजगुरु की प्रभावी व्यवस्था को योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने वर्ष 2008 में दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो की 'माहेश्वरी अखाड़ा' के नाम से प्रसिद्ध हुवा है) के नाम से, धार्मिक विधाओं एवं रीति-रिवाजों और सरकारी कानून के तहत आधिकारिक रूप से पुनर्स्थापित करके समस्त माहेश्वरी समाज को धार्मिक/आध्यात्मिक/सांस्कृतिक मार्गदर्शन करनेवाली व्यवस्था को पुनः सुचारु किया है, कायम किया है। इसके माध्यम से माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करनेवाली एक आधिकारिक व्यवस्था पुनः क्रियान्वित हुई है, जिसका एक बहुत अच्छा लाभ समाज को देखने को मिल रहा है। माहेश्वरी अखाड़ा के पीठाधिपति एवं महेशाचार्य द्वारा समाजजनों के साथ मिलकर किए जा रहे प्रयासों के कारण माहेश्वरी संस्कृति का पुनरुत्थान हो रहा है, समाज और समाजजनों में माहेश्वरी अस्मिता और आत्मसम्मान की भावना जागृत हो रही है; अपने माहेश्वरी समाज की संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रचार-प्रसार के बारे में जागृति दिखाई दे रही है। यह निश्चित रूप से भविष्य के लिए एक शुभ संकेत है।



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Guru Purnima Special | Guru Purnima Date | Maheshwari Samaj ki Maheshwari Gurupeeth Evam Maheshacharya Parampara | Wish you a very Happy Guru Purnima! | Adi Maheshacharya

Guru Purnima & Mahesh Navami Special –

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Maheshacharya (महेशाचार्य) is a religious title used for the peethadhipati of Divyshakti Yogpeeth Akhara (which is known as Maheshwari Akhada is famous). The first Peethadhipati of Maheshwari Gurupeeth was Maharshi Parashar, hence Maharshi Parashara is Adi Maheshacharya. Presently Yogi Premsukhanand Maheshwari Maharaj is the Peethadhipati of Divyshakti Yogpeeth Akhara (Maheshwari Akhada) and Maheshacharya. Maheshacharya is supreme Samajguru of the worldwide Maheshwari Samaj.


Guru is the bridge built to connect the Soul with God (Jeev with Shiv) and the job of the Guru is to show the right destination and right path to the disciple. The bridge that takes one to the destination or from one side to the other (like from darkness to light, from ignorance to knowledge, from problem to solution) is Guru. Without the blessings and guidance of the Guru, even the Gods cannot attain divinity, cannot maintain their divinity. On the auspicious occasion of Guru Purnima, respectful greetings to all the Gurus of the universe!

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माहेश्वरी उत्पत्ति कथा के अनुसार भगवान महेशजी ने महर्षि पराशर, सारस्‍वत, ग्‍वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को माहेश्वरीयों का गुरु बनाया और उनपर माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व सौपा। इन्हे गुरुमहाराज के नाम से जाना जाने लगा। कालांतर में इन गुरुओं ने ऋषि भरद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात (7) हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है। सात गुरु योग के 7 अंगों का प्रतीक हैं, 8वां अंग साक्षात् भगवान महेशजी का प्रतिक मोक्ष है। गुरुमहाराज माहेश्वरी समाज का ही (एक) अंग है।


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सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रबंधन-मार्गदर्शन का कार्य सुचारू रूप से चले इसलिए एक 'गुरुपीठ' को स्थापन किया था जिसे "माहेश्वरी गुरुपीठ" कहा जाता था। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) है। सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) और ध्वज का सृजन किया। ध्वज को "दिव्य ध्वज" कहा गया। दिव्य ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी। गुरुपीठ के पीठाधिपति “महेशाचार्य” की उपाधि से अलंकृत थे। महेशाचार्य- यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद है। महर्षि पराशर माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति है और इसीलिए महर्षि पराशर आदि महेशाचार्य है। अन्य ऋषियों को 'आचार्य' इस अलंकरण से जाना जाता था। गुरुपीठ माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र माना जाता था। माहेश्वरीयों से सम्बन्धीत किसी भी आध्यात्मिक-सामाजिक विवाद पर गुरुपीठ द्वारा लिया/किया गया निर्णय अंतिम माना जाता था।


आदि महेशाचार्य महर्षि पराशर 

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महाभारत काल में एक महान ऋषि हुए, जिन्हें महर्षि पराशर के नाम से जाना जाता हैं। महर्षि पराशर मुनि शक्ति के पुत्र तथा वसिष्ठ के पौत्र थे। ये महाभारत ग्रन्थ के रचयिता महर्षि वेदव्यास के पिता थे (पराशर के पुत्र होने के कारन कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को ‘पाराशर’ के नाम से भी जाना जाता है)। पराशर की परंपरा में आगे वेदव्यास के शुकदेव, शुकदेव के गौड़पादाचार्य, गौड़पादाचार्य के गोविंदपाद, गोविंदपाद के शंकराचार्य (आदि शंकराचार्य) हुए। सबके सब आदिशक्ति माँ भगवती के उपासक रहे है। महर्षि पराशर प्राचीन भारतीय ऋषि मुनि परंपरा की श्रेणी में एक महान ऋषि हैं। योग सिद्दियों के द्वारा अनेक महान शक्तियों को प्राप्त करने वाले महर्षि पराशर महान तप, साधना और भक्ति द्वारा जीवन के पथ प्रदर्शक के रुप में सामने आते हैं। इनका दिव्य जीवन अत्यंत आलोकिक एवम अद्वितीय हैं। महर्षि पराशर के वंशज पारीक कहलाए।

महर्षि पराशर ने धर्म शास्त्र, ज्योतिष, वास्तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र विषयक ज्ञान मानव मात्र को दिया। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ “व्रह्त्पराषर, होराशास्त्र, लघुपराशरी, व्रह्त्पराशरी, पराशर स्मृति (धर्म संहिता), पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर नीतिशास्त्र आदि मानव मात्र के कल्याण के लिए रचित ग्रन्थ जग प्रसिद्ध हैं। महर्षि पराशर ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के उपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण रहे। कहा जाता है कि कलयुग में पराशर के समान कोई ज्योतिष शास्त्री अब तक नहीं हुए। यद्यपि महर्षि पराशर ज्योतिष ज्ञान के कारन प्रसिद्ध है लेकिन इससे भी बढ़कर उनका कार्य है की, उन्होंने धर्म की स्थापना के लिए अथक प्रयास किया।

द्वापर युग के उत्तरार्ध में (जिसे महाभारतकाल कहा जाता है) धर्म की स्थापना के लिए दो महान व्यक्तित्वों ने प्रयास किये उनमें एक है श्रीकृष्ण और दूसरे है महर्षि पराशर। श्रीकृष्ण ने शस्त्र के माध्यम से और महर्षि पराशर ने शास्त्र के माध्यम से धर्म की स्थापना के लिए प्रयास किया। तत्कालीन शास्त्रों में उल्लेख मिलते है की धर्म की स्थापना के लिए महर्षि पराशर ने अथक प्रयास किये, वे कई राजाओं से मिले, उनके इस प्रयास से कुछ लोग नाराज हुए, महर्षि पराशर पर हमले किये गए, उन्हें गम्भीर चोटें पहुंचाई गई। महर्षि पराशर द्वारा रचित "पराशर स्मृति" (धर्म संहिता), उनके धर्म स्थापना के इसी प्रयासों में से किया गया एक प्रमुख कार्य है।

पराशर स्मृति- ग्रन्थों में वेद को श्रुति और अन्य ग्रंथों को स्मृति की संज्ञा दी गई है। ग्रन्थों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्व है। प्रमुख रूप से 18 स्मृतियां मानी गई है। मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, गौतम, शंख, पराशर आदि की स्मृतियाँ प्रसिद्ध हैं जो धर्म शास्त्र के रूप में स्वीकार की जाती हैं। स्मृतियों को धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। 12 अध्यायों में विभक्त पराशर-स्मृति के प्रणेता वेदव्यास के पिता महर्षि पराशर हैं, जिन्होंने चारों युगों की धर्मव्यवस्था को समझकर सहजसाध्य रूप धर्म की मर्यादा निर्दिष्ट (निर्देशित) की है। पराशर स्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह स्मृति कृतयुग (कलियुग) के लिए प्रमाण है, गौतम लिखित त्रेता के लिए, शंखलिखित स्मृति द्वापर के लिए और पराशर स्मृति कलि (कलियुग) के लिए। महर्षि पराशर अपने एक सूत्र में कहते है की- ज्योतिष, धर्म और आयुर्वेद एक-दूसरे में पूर्णत: गुंथे हुए हैं (Future, Religion and Health are completely interconnected -Adi Maheshacharya Maharshi Parashar)।

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माहेश्वरी इतिहास के आधुनिक इतिहासकार — योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी | Modern Historian of Maheshwari History — Yogi Premsukhanand Maheshwari | Book : Maheshwari Utpatti Evam Sankshipt Itihas | Mahesh Navami

| साभार- पाक्षिक पत्रिका 'माहेश्वरी एकता', महेश नवमी - 2019 विशेषांक |


While working away from fame and respect, Maheshacharya Premsukhanand Maheshwari is continuously engaged in the work of social, cultural and organizational revival of Maheshwari community. Many thanks to the fortnightly news magazine Maheshwari Ekta and its editorial board for taking cognizance of this about twelve years work of Yogi Premsukhanandji! Heartfelt gratitude!!!

प्रसिद्धि से, मान-सम्मान से दूर रहकर कार्य करते हुए योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी लगातार माहेश्वरी समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, संगठनात्मक पुनरुत्थान के कार्य में लगे हुए है। योगी प्रेमसुखानन्दजी के इस एक तप के कार्य का संज्ञान लेने पर पाक्षिक समाचार पत्रिका "माहेश्वरी एकता" और उनके संपादक मंडल को अनेकानेक साधुवाद ! मनःपूर्वक आभार !!!

– एस. बी. लोहिया (ट्रस्टी व प्रवक्ता, माहेश्वरी अखाड़ा)

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माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास नामक यह पुस्तक कई माहेश्वरीयों की आंखें खोलने वाली पुस्तक (Book) है, फिर वो माहेश्वरी भारत में रहनेवाले हों या विदेशों में। यह पुस्तक माहेश्वरी इतिहास, दर्शन और संस्कृति का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जैसा कि माहेश्वरी समुदाय (माहेश्वरी समाज) और माहेश्वरी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ने वाले एक माहेश्वरी की नजर से देखा गया है। इस पुस्तक को व्यापक रूप से माहेश्वरी इतिहास पर बेहतरीन आधुनिक कार्यों में से एक माना जाता है। "माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" पुस्तक "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है)" के पीठाधिपति एवं महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखी गई है।

हरएक माहेश्वरी को इस बारे में जानकारी होनी ही चाहिए की अपने समाज की उत्पत्ति कब हुई? कैसे हुई? किसने की? क्यों की? अपने समाज का इतिहास क्या है? इसकी जानकारी होगी तभी तो वह जान पायेगा की वह कितने गौरवशाली तथा सम्मानित समाज का अंग है, उसके समाज का इतिहास कितना गौरवपूर्ण और वैभवशाली है। इसे जानने के लिए योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित यह पुस्तक "माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" आपकी बहुत मदत करती है। प्रेमसुखानंद माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक, "माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" महेश नवमी - 2014 पर प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक को पढ़कर आपको जरूर आनंद, ख़ुशी और गर्व की अनुभूति होगी।

"माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" पुस्तक के कुछ मुख्य अंशों को पढ़ने के लिए इस Link पर click / touch कीजिये > The Book, Maheshwari Origin And Brief History | Author - Yogi Premsukhanand Maheshwari | माहेश्वरी उत्पत्ति और संक्षिप्त इतिहास, योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक

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योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी (पीठाधिपति, माहेश्वरी अखाड़ा) माहेश्वरी समाज के इतिहास के शोधकर्ता, लेखक एवं इतिहासकार हैं। महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज माहेश्वरी समाज के सबसे प्रसिद्ध इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और लेखकों में से एक हैं। उन्हें माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति और प्राचीन माहेश्वरी इतिहास पर शोध में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए जाना जाता है। प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी ना केवल माहेश्वरी समाज के इतिहास के एक शोधकर्ता, लेखक और इतिहासकार हैं; बल्कि माहेश्वरी अखाड़े के पीठाधिपति और महेशाचार्य के रूप में माहेश्वरी समाज और माहेश्वरी संस्कृति के "संरक्षक" के रूप में भी जाने जाते हैं।


महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी ने भारतभर में लगभग 150 योग एवं स्वास्थ्य शिबिरों का सफलतापूर्वक सञ्चालन किया है। उन्होंने छात्रों / विद्यार्थियों की बुद्धिमत्ता को और अधिक निखारने में योग की भूमिका पर एक दिवसीय (देढ़ घंटा) के कई सेमिनार लिए है, जिससे छात्रों को खुदको तनावमुक्त रख सकने में भी लाभ मिला है।

प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज के सभी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बसनेवाले माहेश्वरी समाजजनों को एकता के सूत्र में बांधकर माहेश्वरी समाज के मूल सिद्धांत "सर्वे भवन्तु सुखिनः" को सार्थ करते हुए समाज को गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पुनःस्थापित करना है। प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी, माहेश्वरी संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन, स्वास्थ्य, तनावमुक्त जीवन आदि विषयोंपर व्याख्यान देनेका कार्य कर रहे हैं। योगी प्रेमसुखानन्दजी लगातार सनातन धर्म और माहेश्वरी संस्कृति के प्रचार-प्रसार तथा माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं।

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Jay Mahesh Bal Sanskar Pariwar | Baal Sanskar | जुड़ें बेहतर माहेश्वरी समाज निर्माण कार्य से, जय महेश बाल संस्कार परिवार से | Mahesh Navami Special | Maheshacharya | Premsukhanand | Maheshwari


शालेय शिक्षा (एज्युकेशन) उपजीविका के लिए जरुरी सुविधाएँ जुटाने का सामर्थ्य देती है, तो संस्कार जीवन को सुखी बनाने की काबिलियत देते है। जीवन में जितना महत्व शालेय शिक्षा का है उतना ही बल्कि उससे कहीं ज्यादा महत्व अच्छे संस्कारों का है।
- योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी

प्रस्तावना

माहेश्वरी समाज की उच्चतम धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था "माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा रजि.)" के मार्गदर्शन में सेवाभावी समाजजनों द्वारा माहेश्वरी समाज के 6 से 13 वर्ष के बच्चों के लिए ग्रीष्मकालीन बाल संस्कार शिविर, साप्ताहिक बाल संस्कार वर्ग (सप्ताह में एक दिन/प्रत्येक रविवार को) पुरे देशभर में शुरू किया जाना, चलाया जाना प्रस्तावित है ताकि बच्चों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो और वे जीवन में समृद्धि तो प्राप्त करें ही साथ साथ एक सुखी-आनंदमय जीवन को भी प्राप्त कर सकें। उनमें खुद के व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ ही अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के उत्कर्ष की भावना का एवं इनके प्रति अपने कर्तव्यों का बोध भी रहे।

सभी समाजजनों से अनुरोध है कि वे इसका लाभ अधिक-से-अधिक बालकों को दिलायें ताकि आपके बच्चे ना सिर्फ सक्षम, समर्थ, एक बेहरतीन सूझ-बुझवाले बेहरतीन इंसान बने बल्कि एक बेहतरीन माहेश्वरी समाज का निर्माण भी हो सकें। एक ऐसा माहेश्वरी समाज जैसा अतीत में था, जिससे देश-दुनिया के अन्य समाज (अन्य समाज के लोग) प्रेरणा लेते थे, जिसका अनुकरण-अनुसरण करते थे।
- श्री माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा रजि.)

माहेश्वरी अखाड़ा के पीठाधिपति योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी का सन्देश

सभी माहेश्वरी समाजजनों को, माहेश्वरी मित्रों को सस्नेह जय महेश !

भारतीय संस्कृति और परंपरा में विवाह का उद्देश्य पाश्चिमात्य संस्कृति की तरह सिर्फ यौन कामना पूर्ण करना नहीं होता है बल्कि वंश को, विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संतान (बच्चों) को जन्म देना है। इससे ना सिर्फ वंश परंपरा आगे बढ़ती है बल्कि हमारी संस्कृति और विरासत भी आगे बढ़ती है। इसके लिए आवश्यक होता है की बच्चों को बाल्य अवस्था में अच्छी तथा सही शिक्षा (एज्युकेशन) और अच्छे संस्कार मिले। बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं। बाल्यावस्था में ही बच्चे के अंदर अच्छे संस्कार पड़ जायें तो वह भौतिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्यों के प्रति सजग रहकर मानव-जीवन के परम लक्ष्य को भी शीघ्र ही प्राप्त कर सकता है। बच्चों के जीवन का विद्यार्थी-जीवन काल सँभाल लिया जाये तो उसका भावी जीवन भी सँभल जाता है क्योंकि बाल्यकाल के संस्कार ही बच्चे के जीवन की आधारशिला हैँ।

अपने बच्चों का भावी जीवन सुखी-समृद्ध-आनंदमय हो इसलिए आज के समय में प्रत्येक माता-पिता-पालक अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने की कोशिश करते दिखाई देते है। यहाँ तक की उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा बच्चों के पढाई और शिक्षा पर लगाते है। इससे बच्चे अच्छी शिक्षा पाकर उनके जीवन और उपजीविका के लिए आवश्यक साधन-सुविधाएँ जुटा पाने के काबिल तो बन जाते है लेकिन जाने अनजाने में उन्हें अच्छे संस्कार देने की अनदेखी के चलते उनके मन में मानवीय मूल्यों के प्रति, अपने माता-पिता-परिवार-समाज और राष्ट्र के लिए उनके कर्तव्यों और दायित्व के प्रति कोई भावना अथवा संवेदना नहीं रहती। फिर वो सिर्फ अपने व्यक्तिगत सुख और हितों के बारेमें ही सोचते है। इसका परिणाम हम देखते है की आज की संतानें विवाह के बाद पत्नी आयी कि बस माता-पिता से कह देते हैं कि तुम-तुम्हारे, हम हमारे। कई तो ऐसी कुसंतानें निकल जाती हैं कि बेचारे बूढ़े माँ-बाप को ही धक्का देकर घर से बाहर निकाल देती हैं या खुद अपनी पत्नी-बच्चों के साथ उनसे अलग रहने चले जाते है। इससे कौन सुखी हो पाता है? माता-पिता को छोड़कर अलग रहनेवाला उनका बच्चा अपने माता-पिता की छत्रछाया गंवाकर क्या सुखी रह पाता है? दादा-दादी के प्यार-लाड-कोड, सुरक्षा तथा मार्गदर्शन के अभाव में क्या पोता-पोती सुख पाते है? बुढ़ापे में अपने बच्चे छोड़कर चले जाये तो क्या वो बूढ़े माता-पिता सुख पाते है? ऊपर से भले ही कोई दिखा नहीं रहा हो लेकिन अटल सत्य तो यही की कोई सुखी नहीं हो पाता। तो ऐसा क्यों हो जाता है? क्यों की बाल्य अवस्था में बच्चों की अच्छी शिक्षा की और तो बहुत ध्यान दिया गया लेकिन उन्हें अच्छे संस्कार देना रह गया, बच्चों को अच्छे संस्कार देने की और ध्यान ना देने की गलती हो गई। "संस्कार ददाति सुखम्" अर्थात संस्कार सुख देता है।

प्राचीन काल की गुरूकुल शिक्षा-पद्धति शिक्षा की एक सर्वोत्तम व्यवस्था थी। गुरूकुल में बालक निष्काम सेवापरायण, विद्वान एवं आत्मविद्या-सम्पन्न गुरूओं की निगरानी में रहने के पश्चात् देश व समाज का गौरव बढ़ायें, ऐसे युवक बनकर ही निकलते थे। लेकिन आज वह व्यवस्था नहीं रही। आज के स्कूलों-विद्यालयों में से शिक्षा पाकर युवक बस एक पैसे कमाने की मशीन बनकर बाहर निकलता है। बस एक ऐसी मशीन जिसमें कोई इमोशन, कोई भावना, कोई संवेदना नहीं होती है; होता है तो बस पैसा कमाने का हुनर। और शाश्वत सत्य यही है की सिर्फ बहुत ज्यादा पैसा कमा लेने से, बहुत ज्यादा धनवान बन जाने से ही कोई सुखी नहीं बन सकता, खुशियों को नहीं पा सकता क्यों की यदि सिर्फ पैसों से ही सुख और ख़ुशी मिलती तो गरीब आदमी कभी मुस्कराता हुवा दिखाई ही नहीं देता !

दुर्भाग्य से आजकल के स्कूलों-विद्यालयों में तो मैकाले-शिक्षा-प्रणाली के द्वारा बालकों को ऐसी दूषित शिक्षा दी जा रही है कि उनमें विवेक-बल-धैर्य-संयम-सदाचार का नितांत अभाव है। हम शिक्षा प्रणाली को तो बदल नहीं सकते, बदलना भी चाहे तो उसमें शायद इतना समय लगेगा जिसमें हमारी कुछ पीढ़िया निकल जायें। तो हम माता-पिता-पालक और समाज को अपने स्तर पर इस दुखद परिस्थिति पर समाधान ढूंढना होगा। स्कूलों-विद्यालयों में अच्छी शिक्षा तो मिल रही है लेकिन अच्छे संस्कार देने के लिए हमें अपने स्तर पर कोई व्यवस्था बनानी होगी। यही एकमात्र समाधान है। लेकिन वर्तमान समय में, आज के समय में जीवन की आपाधापी इतनी बढ़ गई है, जरूरतों को पूरा करने के लिए जीवन की भागदौड़ इतनी बढ़ गई है की ज्यादातर माता-पिता के लिए चाहकर भी व्यक्तिगत तौर पर शायद इस कार्य को, इस कमी को पूरा कर पाना संभव नहीं है। ज्यादातर माता-पिता के पास इसके लिए ना समय है और ना ही इस विषय की विशेष्यज्ञता और अनुभव है। इसीलिए हमने इस कार्य को करने के लिए, इस विषय "बाल संस्कार" में रूचि रखनेवाले, समय दे सकनेवाले समाजजनों के सहयोग से, समाज के स्तर पर करने की कोशिश की है। इसी कोशिश का पहला चरण है "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की स्थापना, जो माहेश्वरी अखाडा के तत्वावधान में, मार्गदर्शन में कार्य करेगा। हमारा लक्ष्य है की देशभर में, शहर-शहर में "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की 501 शाखाओं को स्थापन करके अपने समाज के बच्चों को अच्छे संस्कार देने का कार्य करना। हमें पूरा विश्वास है की भगवान् महेशजी की कृपा से समाजहित में किये जा रहे इस कार्य में समाज, समाज के लोग, सामाजिक कार्यकर्ता अपना भरपूर योगदान देंगे। "जय महेश बाल संस्कार परिवार" माहेश्वरी समाज की एक ऐसी इकाई, एक ऐसी संस्था, एक ऐसी व्यवस्था बनेगा जिसपर समस्त माहेश्वरी समाज को गर्व होगा। "जय महेश बाल संस्कार परिवार" माहेश्वरी संस्कृति, माहेश्वरी विरासत और माहेश्वरी गौरव का प्रमुख स्तम्भ कहलायेगा, आधारशिला बनेगा।

जय महेश बाल संस्कार परिवार की शुरूआत कैसे करें?

शुभ संकल्प : जय महेश बाल संस्कार परिवार की सेवा में जुड़ने हेतु सर्वप्रथम भगवान महेशजी के सन्मुख प्रार्थना व संकल्प करें।

प्रचार : जय महेश बाल संस्कार परिवार केन्द्र के शुभारंभ का दिन व समय निश्चित कर आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों के माता-पिता एवं अभिभावकों से मिलने जायें तथा उन्हें बाल संस्कार का महत्व, उद्देश्य व कार्यप्रणाली बतायें। फिर बाल संस्कार केन्द्र के बारे में संक्षेप में बताते हुए बच्चों को बाल संस्कार केन्द्र में भेजने हेतु प्रेरित करें।

केन्द्र स्थल के बाहर जय महेश बाल संस्कार परिवार का बैनर लगायें।

आस-पास के माहेश्वरी समाज से सम्बंधित मंदिरों के नोटिस बोर्ड पर भी बाल संस्कार केन्द्र शुरू होने की सूचना दे सकते हैं, वहां पर बड़ा पॉम्पलेट लगा सकते है।

अपने शहर के हरएक माहेश्वरी घर में जय महेश बाल संस्कार परिवार के बारेमें जानकारी का पॉम्पलेट भेज सकते है।

कार्यक्रम का दिन : केन्द्र सप्ताह में एक दिन चलायें (जैसे की, प्रत्येक रविवार को)।

स्थान : केन्द्र संचालक या अन्य किसी साधक का घर, मंदिर का परिसर, स्कूल अथवा कोई सार्वजनिक स्थल हो सकता है।

समय : सामान्य रूप से एक से डेढ़ घंटे का सत्र लिया जा सकता हैं। फिर भी जैसी व्यवस्था, परिस्थिति हो उसके अनुरूप समय की अवधि तय कर लेनी चाहिए।

बच्चों की उम्र : 6 से 13 वर्ष।

बैठक व्यवस्था : बालक एवं बालिकाओं को अलग-अलग बिठायें तथा उनके अभिभावकों और अन्य साधकों को पीछे बिठायें।

माहेश्वरी समाज के प्रथम आराध्य भगवान महेशजी अथवा महेश परिवार के तसबीर (फोटो) के समक्ष धूप-दीप आदि लगा करके वातावरण को सात्विक बनायें एवं फूल-माला आदि से सजावट कर कार्यक्रम की शुरूआत करें।

पाठयक्रम का उपयोग कैसे करें?

1) प्रति सप्ताह के निश्चित किये गए दिन (जैसे की, रविवार) को सत्र/वर्ग चलायें।

2) सत्र की शुरुवात में क्रमानुसार गणेशजी की वंदना, महेश अष्टक, ध्येय-गीत (इतनी शक्ति हमें देना दाता...) और पंचनमस्कार मंत्र अवश्य करायें।

3) हर सत्र के कार्यक्रम के सभी विषयों का पहले से ही अच्छी तरह अध्ययन किया करें। खाली समय में उन बातों को अपने बच्चों या मित्रों को बतायें तथा उन पर चर्चा करें, इससे उस सत्र के कार्यक्रम के सभी विषय आपको अच्छी तरह याद हो जायेंगे, जिससे आप बच्चों को अच्छी तरह समझा पायेंगे।

4) कार्यक्रम में बच्चों को जो-जो बातें सिखानी हैं, उनका एक संक्षिप्त नोट पहले ही बना लें। इससे आपको सभी बातें आसानी से याद रहेंगी तथा कोई विषय छूटने की समस्या भी नहीं रहेगी।

5) बच्चों को एक नोटबुक बनाने को कहें, जिसमें वे गृहकार्य करेंगे और हर सप्ताह बतायी जानेवाली महत्त्वपूर्ण बातें लिखेंगे।

6) हर सप्ताह दिये गये गृहकार्य के बारे में अगले सप्ताह बच्चों से पूछें।

7) प्रति सत्र में सिखाये जाने वाले, किये जानेवाले सूर्यनमस्कार, योगासन, प्राणायाम आदि योग साधनाओं की विस्तृत जानकारी हेतु योग की प्रमाणित पुस्तकों को पढ़ें, इन योग क्रियाओं का प्रैक्टिकल अभ्यास करें। इस बारेमें अधिक जानकारी के लिए माहेश्वरी अखाड़ा के योग शिक्षकों से भी संपर्क कर सकते है।

8) निर्धारित समय में सभी विषयों को पूरा करने का प्रयास करें।

बाल संस्कार वर्ग संचालन विषय सूचि

1) वार्तालाप

2) प्रार्थना, स्तुति आदि

3) 5 बार दीर्घ स्वसन

4) जीवन के बारेमें ज्ञान देनेवाले संस्कृत सुविचार या श्लोक लें और उसके अर्थ बताएं, संभव हो तो छोटीसी कहानी या उदाहरण के माध्यम से इसे समझाये। संस्कृत श्लोक थोड़े शब्दों में अथाह ज्ञान को समाये हुए रहते हैं यह प्राचीनतम भाषा हैं जिसे सभी भाषाओँ का मूल माना जाता हैं।

5) प्रेरक कथा, माहेश्वरी समाज में जन्मे महापुरुषों के बारेमें जानकारी, विशेष उपलब्धियां हासिल करनेवाले माहेश्वरियों के बारेमें जानकारी, माहेश्वरी संस्कृति तथा माहेश्वरी इतिहास के बारे में जानकारी दें।

6) भजन, बालगीत, देशभक्ति गीत आदि लें।

7) बच्चों में स्वास्थ्य के प्रति सजगता, ऋतु नुसार आहार के प्रति सजगता, सही-गलत समझने और इनमें फर्क करने के बारेमें सजगता जागृत करने की दिशा में मार्गदर्शन करें।

8) हँसते-खेलते पायें ज्ञान: ज्ञानवर्धक खेल, मैदानी खेल, ज्ञान के चुटकुले आदि तथा व्यक्तित्व विकास के प्रयोग (निबंध प्रतियोगिता, वक्तृत्व स्पर्धा, वाद-प्रतिवाद स्पर्धा आदि) लें।

9) यौगिक प्रयोग : व्यायाम, योगासन, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार आदि लें।

10) शिव महापुराण पर आधारित कथा-प्रसंग।

11) भगवान गणेशजी की आरती, महेशजी की आरती व प्रसाद वितरण।

टिप्पणी : बीच-बीच में हास्य प्रयोग करवायें और अंत में गृहपाठ आदि लें।

नियमावली

जय महेश बाल संस्कार परिवार का केन्द्र/शाखा खोलने एवं संचालित करने के लिए निम्नलिखित नियमों का पालन करना अनिवार्य है।

1) बाल संस्कार केन्द्र/शिविर में बालक-बालिकाओं को पूर्णतः निशुल्क प्रवेश दिया जायेगा। केन्द्र की ओर से किसी भी प्रकार की फीस, चंदा आदि एकत्रित नहीं किया जायेगा और न ही केन्द्र के नाम कोई रसीद बुक छपायी जायेगी।

2) बाल संस्कार केन्द्र/शिविर का आर्थिक प्रबन्धन स्थानीय "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की कार्यकारिणी स्वयं करेगी। केन्द्र को आर्थिक सहायता प्रदान करने के इच्छुक व्यक्ति स्थानीय "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की कार्यकारिणी से संपर्क कर सकते हैं। बाल संस्कार केन्द्र चलाने वाले शिक्षक-शिक्षिका अगर यातायात और धन के अभाव के कारण बाल संस्कार केन्द्र नहीं चला पाते हों तो स्थानीय कार्यकारिणी अथवा बालकों के अभिभावक आपस में मिल कर सलाह-मशविरा करके उनके मासिक खर्च की सुविधा कर सकते है।

3) मुख्यालय के उपरोक्त नियमों के अतिरिक्त समय-समय पर संशोधित व नवनिर्मित अन्य नीति-नियम भी केन्द्र व इससे जुड़ी कार्यकारिणी के लिए बाध्य होंगे।

4) स्थानीय "जय महेश बाल संस्कार परिवार" का अलग से कोई सिम्बॉल नहीं होगा। केंद्रीय मुख्यालय द्वारा जारी सिम्बॉल का ही इस्तेमाल करना अनिवार्य है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय कार्यकारिणी के ‘लेटर पैड’ व केंद्रीय मुख्यालय द्वारा जारी सिम्बॉल का उपयोग किया जा सकता है।

5) स्थानीय संचालन कार्यकारिणी/केन्द्र संचालक ऐसे कोई कदम नहीं उठायेंगे, जो माहेश्वरी अखाड़ा तथा माहेश्वरी समाज के आदर्शों के विपरीत पड़ते हों अथवा जिनके संबंध में मुख्यालय द्वारा कोई स्पष्ट निर्देश न दिया गया हो। मुख्यालय द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देशित नीति-नियमों के अनुसार ही केन्द्र/शिविर का संचालन किया जाना अनिवार्य है। अगर नियमावली से किसी मुद्दे पर स्पष्ट निर्देश न मिले तो उस विषय में मुख्यालय से स्पष्टीकरण प्राप्त कर सकते है।

प्रस्तावित केन्द्र संचालक हेतु अनिवार्य योग्यताएँ

(क) प्रस्तावित केन्द्र संचालक स्वेच्छापूर्वक बाल संस्कार के कार्य से जुड़ने का इच्छुक हो तथा कार्यक्रम चलाने की स्थिति में हो।


(ख) वह व्यसनमुक्त, चरित्रवान हो।

(ग) वह दिवालिया, अथवा किसी संक्रामक रोग से पीड़ित न हो।

(घ) उसमें अपने समाज के लिए, समाज के हित में कुछ ना कुछ योगदान देने की चाहत हो।

पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन)

आपके अपने शहर में "जय महेश बाल संस्कार परिवार" के शुभारम्भ के पश्चात केन्द्र संचालक अथवा कार्यकारिणी सचिव द्वारा शीघ्र ही आवेदन पत्र भरकर माहेश्वरी अखाडा के मुख्यालय भेजें। ताकि जल्द से जल्द उनके केन्द्र को मुख्यालय द्वारा मान्यता हेतु पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त हो सके। पंजीकरण हेतु आवश्यक आवेदन-पत्र के लिए अथवा इस सन्दर्भ में अधिक जानकारी के लिए माहेश्वरी अखाडा कार्यालय के संपर्क क्रमांक WhatsApp No. 9405826464 पर संपर्क करें।

नोटः अगर आप एक से अधिक केन्द्र चला रहे हैं तो आपको हर केन्द्र का अलग-अलग पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त होगा। आवेदन पत्र स्पष्ट अक्षरों में भरें।


बाल संस्कार परिवार केंद्र सञ्चालन हेतु संचालक निम्नलिखित links को देखें।


महेशाष्टक (महेश वंदना)



बाल संस्कार शिविर/वर्ग के संचालन में उपयोगी सामग्री

श्री गणेश वंदना
आदि-पूज्यं गणाध्यक्षं, उमापुत्रं विनायकम्
मंगलं परमं रूपं, श्री-गणेशं नमाम्यहम्।
प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम्
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुःकामार्थसिद्धये॥


ध्येयगीत
इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना।
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना॥धृ॥

दूर अज्ञान के हो अंधेरे,
तू हमें ज्ञान की रौशनी दे।
हर बुराई से बचते रहें हम,
जितनी भी दे भली ज़िन्दगी दे॥

बैर हो ना किसी का किसी से
भावना मन में बदले की हो ना।
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना॥1॥ 

हम ना सोचें हमें क्या मिला है
हम ये सोचे किया क्या है अर्पण।
फूल खुशियों के बाँटे सभी को
सब का जीवन ही बन जाए मधुबन॥

अपनी करुणा का जल तू बहा के
कर दे पावन हर एक मन का कोना।
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना॥2॥


बच्चो के लिए शिक्षाप्रद कहानियाँ

कहानी : शेर और किशमिश
एक खूबसूरत गांव था। चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ। पहाड़ी के पीछे एक शेर रहता था। जब भी वह ऊंचाई पर चढ़कर गरजता था तो गांव वाले डर के मारे कांपने लगते थे।

कड़ाके की ठंड का समय था। सारी दुनिया बर्फ से ढंकी हुई थी। शेर बहुत भूखा था। उसने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था। शिकार के लिए वह नीचे उतरा और गांव में घुस गया। वह शिकार की ताक में घूम रहा था। दूर से उसे एक झोपड़ी दिखाई दी। खिड़की में से टिमटिमाते दिए की रोशनी बाहर आ रही थी। शेर ने सोचा यहां कुछ न कुछ खाने को जरूर मिल जाएगा। वह छुपकर खिड़की के नीचे बैठ गया।

झोपड़ी के अंदर से बच्चे के रोने की आवाज आई। ऊं...आं... ऊं...आं..। वह लगातार रोता जा रहा था। शेर इधर-उधर देखकर मकान में घुसने ही वाला था कि उसे औरत की आवाज आई- 'चुप रहे बेटा। देखो लोमड़ी आ रही है। बाप रे, कितनी बड़ी लोमड़ी है? कितना बड़ा मुंह है इसका। कितना डर लगता है उसको देखकर।' लेकिन बच्चे ने रोना बंद नहीं किया। मां ने फिर कहा- 'वह देखो, भालू आ गया... भालू खिड़की के बाहर बैठा है। बंद करो रोना नहीं तो भालू अंदर आ जाएगा', लेकिन बच्चे का रोना जारी रहा। उसे डराने का कोई असर नहीं पड़ा।

खिड़की के नीचे बैठा शेर सोच रहा था- 'अजीब बच्चा है यह! काश मैं उसे देख सकता। यह न तो लोमड़ी से डरता है, न भालू से।' उसे फिर जोर की भूख सताने लगी। शेर खड़ा हो गया। बच्चा अभी भी रोए जा रहा था।

फिर माँ की आवाज आई, 'देखो... देखो... देखो, शेर आ गया शेर'। वह रहा खिड़की के नीचे।' लेकिन बच्चे का रोना, फिर भी बंद नहीं हुआ। यह सुनकर शेर को बहुत ताज्जुब हुआ और बच्चे की बहादुरी से उसको डर लगने लगा। उसे चक्कर आने लगे और बेहोश-सा हो गया। शेर ने सोचा। 'वह बच्चे की माँ कैसे जान गई कि मैं खिड़की के पास हूं।' थोड़ी देर बाद उसकी जान में जान आई और उसने खिड़की के अंदर झांका। बच्चा अभी भी रो रहा था। उसे शेर का नाम सुनकर भी डर नहीं लगा।

शेर ने आज तक ऐसा कोई जीव नहीं देखा जो उससे न डरता हो। वह तो यही समझता था कि उसका नाम सुनकर दुनिया के सारे जीव डर के मारे कांपने लगते हैं, लेकिन इस विचित्र बच्चे ने मेरी भी कोई परवाह नहीं की। उसे किसी भी चीज का डर नहीं है। शेर का भी नहीं। अब शेर को चिंता होने लगी। तभी मां की फिर आवाज सुनाई दी। 'लो अब चुप रहो। यह देखो किशमिश...।' बच्चे ने फौरन रोना बंद कर दिया। बिलकुल सन्नाटा छा गया।

शेर ने सोचा- 'यह किशमिश कौन है? बहुत ही ताकदवर, बहुत ही खूंखार होगा।' अब तो शेर भी किशमिश के बारे में सोचकर डरने लगा। उसी समय कोई भारी चीज धम्म से उसकी पीठ पर गिरी। शेर अपनी जान बचाकर वहां से भागा। उसने सोचा कि उसकी पीठ पर किशमिश ही कूदा होगा।

असल में उसकी पीठ पर एक चोर कूदा था, जो उस घर में गाय-भैंस चुराने आया था। अंधेरे में शेर को गाय समझकर वह छत पर से उसकी पीठ पर कूद गया। डरा तो चोर भी। उसकी तो जान ही निकल गई जब उसे पता चला कि वह शेर की पीठ पर सवार है, गाय की पीठ पर नहीं।



शेर बहुत तेजी से पहाड़ी की ओर दौड़ा, ताकि किशमिश नीचे गिर पड़े, लेकिन चोर ने भी कसकर शेर को पकड़ रखा था। वह जानता था कि यदि वह नीचे गिरा तो शेर उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा। शेर को अपनी जान का डर था और चोर को अपनी जान का।


थोड़ी देर में सुबह का उजाला होने लगा। चोर को एक पेड़ की डाली दिखाई दी। उसने जोर से डाली पकड़ी और तेजी से पेड़ के ऊपर चढ़कर छिप गया। शेर की पीठ से छुटकारा पाकर उसने चैन की सांस ली। भगवान का धन्यवाद किया जान बचाने के लिए।

शेर ने भी चैन की सांस ली- 'भगवान को धन्यवाद मेरी जान बचाने के लिए। किशमिश तो सचमुच बहुत भयानक जीव है' और वह भूखा-प्यासा वापस पहाड़ी पर अपनी गुफा में चला गया।

(इस कहानी को सुनाने के बाद एक एक बालक, बालिका से पूछे की उसे इस कहानी से क्या सिख मिली?)

कहानी : जीवन का मूल्य
यह कहानी पुराने समय की है। एक दिन एक आदमी गुरु के पास गया और उनसे कहा, 'बताइए गुरुजी, जीवन का मूल्य क्या है?' गुरु ने उसे एक पत्थर दिया और कहा, 'जा और इस पत्थर का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना पत्थर को बेचना नहीं है।'

वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और संतरे वाले को दिखाया और बोला, 'बता इसकी कीमत क्या है?' संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे जा।' वह आदमी संतरे वाले से बोला, 'गुरु ने कहा है, इसे बेचना नहीं है।'

और आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा, 'एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।' उस आदमी ने कहा, 'मुझे इसे बेचना नहीं है, मेरे गुरु ने मना किया है।'

आगे एक सोना बेचने वाले सुनार के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '50 लाख में बेच दे'। उसने मना कर दिया तो सुनार बोला, '2 करोड़ में दे दे या बता इसकी कीमत जो मांगेगा, वह दूंगा तुझे...।' उस आदमी ने सुनार से कहा, 'मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है।'

आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया। जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, उसपर रूबी को रखा, फिर उस बेशकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका, फिर जौहरी बोला, 'कहां से लाया है ये बेशकीमती रुबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती। ये तो बेशकीमती है।'

वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे गुरु के पास गया और अपनी आपबीती बताई और बोला, 'अब बताओ गुरुजी, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?'

गुरु बोले, 'तूने पहले पत्थर को संतरे वाले को दिखाया, उसने इसकी कीमत 12 संतरे बताई। आगे सब्जी वाले के पास गया, उसने इसकी कीमत 1 बोरी आलू बताई। आगे सुनार ने 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे बेशकीमती बताया। बस ऐसे ही मानवीय जीवन का मूल्य है, तेरा मानवीय मूल्य है। इसे तू 12 संतरे में बेच दे या 1 बोरी आलू में या 2 करोड़ में या फिर इसे बेशकीमती बना ले, ये तेरी सोच पर निर्भर है कि तू जीवन को किस नजर से देखता है।'

सीख : हमें कभी भी अपनी सोच का दायरा कम नहीं होने देना चाहिए।

कहानी : एकता की शक्ति
एक बार हाथ की पाँचों उंगलियों में आपस में झगड़ा हो गया। वे पाँचों खुद को एक दूसरे से बड़ा सिद्ध करने की कोशिश में लगे थे। अंगूठा बोला की मैं सबसे बड़ा हूँ, उसके पास वाली उंगली बोली मैं सबसे बड़ी हूँ; इसी तरह सारी उंगलियां खुद को बड़ा सिद्ध करने में लगी थी। जब निर्णय नहीं हो पाया तो वे सब इस मामले को लेकर अदालत में गये।

न्यायाधीश ने सारा माजरा सुना और उन पाँचों से बोला की पहले आप लोग सिद्ध करो की कैसे तुम सबसे बड़े हो? अंगूठा बोला मैं सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा हूँ क्यूं की लोग मुझे हस्ताक्षर के स्थान पर प्रयोग करते हैं। पास वाली उंगली बोली की लोग मुझे किसी इंसान की पहचान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। उसके पास वाली उंगली ने कहा की आप लोगों ने मुझे नापा नहीं अन्यथा मैं ही सबसे बड़ी हूँ। उसके पास वाली उंगली बोली मैं सबसे ज़्यादा अमीर हूँ क्यूंकी लोग हीरे और जवाहरात और अंगूठी मुझी में पहनते हैं। इसी तरह सभी ने अपनी अलग अलग प्रशन्शा की और खुद को औरों से बड़ा बताया।

न्यायाधीश ने अब एक रसगुल्ला माँगाया और अंगूठे से कहा की इसे उठाओ, उंगुठे ने भरपूर ज़ोर लगाया लेकिन रसगुल्ले को नहीं उठा सका। इसके बाद सारी उंगलियों ने एक एक करके कोशिश की लेकिन सभी विफल रहे। अंत में न्यायाधीश ने सबको मिलकर रसगुल्ला उठाने का आदेश दिया तो सबने मिलकर झट से और बड़ी आसानी से रसगुल्ला उठा लिया। फ़ैसला हो चुका था, न्यायाधीश ने फ़ैसला सुनाया कि तुम सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हो और अकेले रहकर तुम्हारी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, जबकि संगठित रहकर तुम कठिन से कठिन काम आसानी से कर सकते हो।

सिख : संगठित रहनेमें, एकता में ही शक्ति है।

कहानी : स्वास्थ्य है असली धन-सम्पदा
एक शहर में एक अमीर व्यक्ति रहता था। वह पैसे से तो बहुत धनी था लेकिन शरीर और सेहत से बहुत ही गरीब। दरअसल वह हमेशा पैसा कमाने की ही सोचता रहता था, दिन रात पैसा कमाने के लिए मेहनत करता लेकिन अपने शरीर के लिए उसके पास बिल्कुल समय नहीं था। फलस्वरूप अमीर होने के बावजूद उसे कई नई-नई प्रकार की बिमारियों ने घेर लिया और शरीर भी धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा था, लेकिन वह इस सब पर ध्यान नहीं देता और हमेशा पैसे कमाने में ही लगा रहता था।

एक दिन वह थकाहारा शाम को घर लौटा और जाकर सीधा बिस्तर पे लेट गया। धर्मपत्नी जी ने खाना लगाया लेकिन अत्यधिक थके होने के कारण उसने खाना खाने से मना कर दिया और भूखा ही सो गया। आधी रात को उसके शरीर में बहुत तेज दर्द हुआ, वह कुछ समझ नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है? अचानक उसके सामने एक विचित्र सी आकृति आकर खड़ी हो गयी और बोली – हे मानव मैं तुम्हारी आत्मा हूँ और आज से मैं तुम्हारा शरीर छोड़ कर जा रही हूँ।

वह व्यक्ति घबराया सा बोला – आप मेरा शरीर छोड़ कर क्यों जाना चाहती हो मैंने इतनी मेहनत से इतना पैसा और वैभव कमाया है, इतना आलिशान बंगला बनवाया है यहाँ तुम्हें रहने में क्या दिक्कत है?

आत्मा बोली – हे मानव सुनो मेरा घर ये आलिशान बंगला नहीं तुम्हारा शरीर है, जो बहुत दुर्बल हो गया है जिसे अनेकों बिमारियों ने घेर लिया है। सोचो अगर तुम्हें बंगले की बजाए किसी टूटी झोपड़ी में रहना पड़े तो तुम्हें कितना दुःख होगा, उस प्रकार तुमने अपने शरीर यानि मेरे घर को भी टूटा फूटा और खण्डर बना लिया है, जिसमें मैं अब और नहीं रह सकती।

इतना कहकर, आत्मा ने उस व्यक्ति के शरीर को त्याग दिया और जीवन भर सिर्फ पैसे कमाने के लालच कि वजह से उस व्यक्ति को कम उम्र में ही अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।

सिख : पैसा अथवा सोने-चांदी के टुकड़े नहीं बल्कि अपना शरीर और शरीर का “स्वास्थ्य” असली धन है, सबसे बड़ी पूंजी है। ये सिर्फ एक कहानी नहीं है बल्कि जीवन की सच्चाई है। दुनिया में बहुत सारे विद्यार्थी पढाई के चक्कर में और बहुत सारे युवा/बुजर्ग पैसा कमाने के चक्कर में अपना स्वास्थ्य गवां देते हैं, वे लोग ये नहीं सोचते कि हमारी आत्मा और प्राण को किसी आलिशान बंगले या पैसे की जरुरत नहीं, बल्कि एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता है।

कहानी : रिश्ता पतंग और डोर का
एक बार एक गांव मेंं पतंग उड़ाने केे त्योहार  का आयोजन हुआ। गांव का एक आठ साल का बच्चा दीपू भी अपने पिता के साथ इस त्योहार में गया। दीपू रंगीन पतंगों से भरा आकाश देखकर बहुत खुश हो गया। उसने अपने पिता से उसे एक पतंग और एक मांझा (धागे का रोल) दिलाने के लिए कहा ताकि वह भी पतंग उड़ा सके। दीपू के पिता दुकान में गए और उन्होनें पतंग और धागे का एक रोल खरीद्कर अपने बेटे को दे दिया।

अब दीपू ने पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। जल्द ही, उसकी पतंग आकाश में ऊंचा उड़ने लगी। थोड़ी देर के बाद, उसने अपने पिता से कहा, पिताजी, ऐसा लगता है कि धागा पतंग को उंचा उड़ने से रोक रहा है, अगर हम इसे तोड़ते हैं, तो पतंग इससे भी और ज्यादा उंची उड़ेगी। क्या हम इसे तोड़ दें? “तो, पिता ने रोलर से धागा काटकर अलग कर दिया। पतंग थोड़ा ऊंचा जाना शुरू हो गयी। यह देखकर दीपू बहुत खुश हुआ। लेकिन फिर, धीरे-धीरे पतंग ने नीचे आना शुरू कर दिया। और, जल्द ही पतंग एक कांटेदार पेड़ पर गिर गयी और उसमे उलझकर फैट गई। दीपू को यह देखकर आश्चर्य हुआ। उसने धागे को काटकर पतंग को मुक्त कर दिया था ताकि वह ऊंची उड़ान भर सके, लेकिन इसके बजाय, यह गिर पड़ी। उसने अपने पिता से पूछा, "पिताजी, मैंने सोचा था कि धागे को काटने के बाद, पतंग खुलकर उंचा  उड़ सकती है । लेकिन यह क्यों गिर गयी?"

पिता ने समझाया, “बेटा, जब हम जीवन की ऊंचाई पर रहते हैं, तब अक्सर सोचते हैं कि कुछ चीजें जिनके साथ हम बंधे हैं और वे हमें आगे बढ़ने से रोक रही हैं। धागा पतंग को ऊंचा उड़ने से नहीं रोक रहा था, बल्कि जब हवा धीमी हो रही थी उस वक़्त धागा पतंग को ऊंचा रहने में मदद कर रहा था, और जब हवा तेज हो गयी तब तुमने धागे की मदद से ही पतंग को उचित दिशा में ऊपर जाने में मदद की। और जब हमने धागे को काटकर छोड़ दिया, तो धागे के माध्यम से पतंग को जो सहारा मिल रहा था वह खत्म हो गया और पतंग टूट कर गिर गयी"। दीपू को बात समझ में आ गयी।

सीख : कभी-कभी हम महसूस करते हैं कि यदि हम अपने परिवार, घर से बंधे नहीं हो तो हम जल्दी से प्रगति कर सकते हैं और हमारे जीवन में नई ऊंचाइयों तक पहुंच सकते हैं लेकिन, हम यह महसूस नही करते कि हमारा परिवार, हमारे प्रियजन ही हमें जीवन के कठिन समय से उबरने में मदद करते हैं और हमें अपने जीवन में आगे बढने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे हमारे लिये रुकावट नही है, बल्कि हमारा सहारा है।

संस्कृत श्लोकों का संग्रह


अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ।।
अर्थ : किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है।


षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
अर्थ : किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है – नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत।


अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ।।
अर्थ : निम्न कोटि के लोगो को सिर्फ धन की इच्छा रहती है, ऐसे लोगो को सम्मान से मतलब नहीं होता। एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा करता है वही एक उच्च कोटि के व्यक्ति के सम्मान ही मायने रखता है। सम्मान धन से अधिक मूल्यवान है।


शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः ।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ।।
अर्थ : सौ लोगो में एक शूरवीर होता है, हजार लोगो में एक विद्वान होता है, दस हजार लोगो में एक अच्छा वक्ता होता है वही लाखो में बस एक ही दानी होता है।


आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है। मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र परिश्रम होता है क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रहता।


बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खो सौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थ : जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है वह व्यक्ति बलवान होने पर भी असमर्थ, धनवान होने पर भी निर्धन व ज्ञानी होने पर भी मुर्ख होता है।


पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ।।
अर्थ : किताब में रखी विद्या व दूसरे के हाथो में गया हुआ धन कभी भी जरुरत के समय काम नहीं आते।

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।।
अर्थ : बिना सोचे – समझे आवेश में कोई काम नहीं करना चाहिए क्योंकि विवेक में न रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। वही जो व्यक्ति सोच – समझ कर कार्य करता है माँ लक्ष्मी उसी का चुनाव खुद करती है।


उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।
अर्थ : उद्यम, यानि मेहनत से ही कार्य पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि शेर को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।


वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।
अर्थ : जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन: ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं ।।
अर्थ : बड़ों का अभिवादन करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल - ये चार चीजें बढ़ती हैं।


न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु: 
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा ।।
अर्थ : न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।


बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थ : जो व्यक्ति पूरी निष्ठा से अपना धर्म नहीं निभाता वो शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल हैं, धनी होते हुए भी गरीब हैं और पढ़े लिखे होते हुये भी अज्ञानी हैं।


कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ।।

अर्थ- जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव माता भवानी सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है।


।। शुभं भवतु ।।