जिन्हे मारवाड़ी ब्राम्हण कहा जाता है वे माहेश्वरियों से अलग नहीं बल्कि "माहेश्वरी" ही है
हाल के दिनों में देशभर के समाजबंधुओं से चर्चा में कुछ सजग समाजबंधुओं द्वारा कुछ प्रश्न उपस्थित किये गए है- आचार्य किशोरजी व्यास 'माहेश्वरी' है या नहीं? जिनको हम माहेश्वरी या मारवाड़ी ब्राम्हण कहते है वे माहेश्वरी है या नहीं? अगर से वे माहेश्वरी है तो उन्हें समाज के संगठनों में क्यों शामिल नहीं किया गया है? इस बात पर माहेश्वरी समाज की सर्वोच्च आध्यात्मिक संस्था 'माहेश्वरी अखाडा' के पीठाधिपति प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने निर्णय दिया है की आचार्य किशोरजी व्यास एवं जो मारवाड़ी ब्राम्हण है, "माहेश्वरी" ही है.
इस निर्णय के आधार को समाज के सामने प्रस्तुत करने की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने कहा की ...इस बातको हमें तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर समझना होगा, इसके मूल में जाना होगा. कुछ समाजबंधुओं को माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बारे में पूर्णरूपेण जानकारी नहीं होने के कारन उनके मन में ऐसा प्रश्न आना स्वाभाविक है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के अनुसार जब माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई उसी समय भगवान महेशजी ने महर्षि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को माहेश्वरियों का गुरु बनाया (गुरुपद दिया). कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि (सप्त गुरु) कहा जाता है. एक सर्वमान्य परंपरा यह है की समाज के जो गुरु होते है वे उसी समाज के माने जाते है जिस समाज के वे समाजगुरु है, जैसे की जैनों के गुरु जैन ही होते है, सिखों के गुरु सिख ही होते है. इस सर्वमान्य परंपरा के अनुसार एवं माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के तथ्यों के आधारपर यह स्पष्ट है की उपरोक्त वर्णित सात ऋषियों (माहेश्वरी गुरुओं) के वंशज 'माहेश्वरी' ही है.
आम तौर पर इन्हें माहेश्वरी ब्राम्हण कहा जाता है. जब 'माहेश्वरी ब्राम्हण' इस शब्द का प्रयोग किया जाया है तो इसमें माहेश्वरी इस शब्द के लगने से ही यह प्रमाणित हो जाता है की वे माहेश्वरी ही है लेकिन कहीं कहीं इन्हें माहेश्वरी ब्राम्हण के बजाय मारवाड़ी ब्राम्हण भी कहा जाता है जिससे कुछ समाजबंधुओं को यह संदेह होता है की यह ब्राम्हण समाज तो मारवाड़ी ब्राम्हण है इन्हें केवल "माहेश्वरी" कैसे कहा जा सकता है. मारवाड़ यह राजस्थान के एक भूभाग का नाम है. मुग़ल काल व राजपूत शाषकों के समय से इस भूभाग को मारवाड़ के नाम से जाना जाने लगा. तथ्य बताते है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति इससे कई पूर्व में द्वापर युग के उत्तरार्ध में (अर्थात महाभारत काल) में हुई है, उस समय में राजस्थान को 'राजस्थान' के नाम से या राजस्थान के मारवाड़ को 'मारवाड़' नाम से जाना ही नहीं जाता था, बल्कि यह भूभाग मत्स्य देश (मत्स्य जनपद) के नाम से जाना जाता था. जब उस समय मारवाड़ ही नहीं था तो मारवाड़ी शब्द भी नहीं था. यह तो बाद में रहने के स्थान के नाम पर अस्तित्व में आया है. अर्थात जिन्हें हम मारवाड़ी ब्राम्हण कहते है वे मूलतः माहेश्वरी ही है. उपरोक्त वर्णित सात माहेश्वरी गुरुओं के वंशज (वर्तमान में जिनके उपनाम (सरनेम) पारीक, दायमा, दाधीच, व्यास आदि है) निःसंदेह रूप से माहेश्वरी है. इन्हें समाज के संगठनों में शामिल नहीं किया जाना यह अबतक की हुई बहुत बड़ी चूक है, इसे अविलम्ब दुरुस्त किया जाना चाहिए.
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