Pancha Namaskar Mahamantra

पञ्चनमस्कार महामन्त्र (माहेश्वरी मंगलाचरण)


पञ्चनमस्कार महामन्त्र माहेश्वरी संप्रदाय (समाज) का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मन्त्र है। माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेश-पार्वतीजी द्वारा बनाये गए माहेश्वरी गुरुओं द्वारा इस महामंत्र को प्रकट किया गया। इसे 'मंगलाचरण मन्त्र', 'महामंत्र', 'महाबीजमन्त्र', 'मूलमंत्र' या 'पञ्चनमस्कार महामंत्र' भी कहा जाता है। संसार के सभी दूसरे मंत्रों में भगवान से या देवताओं से किसी न किसी प्रकार की माँग की जाती है, लेकिन इस मंत्र में कोई माँग नहीं है। जिस मंत्र में कोई याचना की जाती है, वह छोटा मंत्र होता है और जिसमें समर्पण किया जाता है, वह मंत्र महान होता है। इस मंत्र में पाँच पदों को समर्पण और नमस्कार किया गया है इसलिए यह महामंत्र है।

'पञ्चनमस्कार महामन्त्र' एक लोकोत्तर मंत्र है। इस मंत्र को संप्रदाय का परम पवित्र और अनादि मूल मंत्र माना जाता है। लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुँचाते हैं, किंतु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए पञ्चनमस्कार महामन्त्र सर्वकार्य सिद्धिकारक लोकोत्तर मंत्र माना जाता है। यह महामंत्र सब पापो का नाश करने वाला तथा सब मंगलो मे प्रथम मंगल है।

इस मंत्र के पदों का जो क्रम रखा गया है, वह आध्यात्मिक विकास के विभिन्न आयामों और उनके सूक्ष्म संबंधों के बड़े ही वैज्ञानिक विश्लेषण का परिचायक है।

ॐ नमो प्रथमेशानं
ॐ नमो महासिद्धानं
ॐ नमो जगदगुरुं
ॐ नमो सदाशिवं
ॐ नमो सर्वे साधूनां
एते पञ्चनमस्कारान् श्रद्धया प्रत्यहं पठेत्
साध्यते सुखमारोग्यं सर्वेषां मङ्गलं भवेत्

ॐ नमो प्रथमेशानं – प्रथमेशों को नमस्कार। प्रथमेश अर्थात वह, जिसने साधना का श्रीगणेशा (प्रारम्भ) कर दिया है। प्रथमेश उसे कहा जाता है जिसने साध्य के लिए साधना की शुरुवात कर दी है। वह साधक जिसकी साधना प्रारम्भ हो गई है। प्रथमेश अर्थात साधक। साधक, जो कुछ अर्जित करने की प्रक्रिया में है। साध्य को पाने के लिए जो साधना के पथ पर अग्रेसर हुवा है। जो निरुद्देश्य नहीं अपितु किसी उद्देश्य को पाने के लिए जी रहा है। प्रथमेशों को (साधकों) को नमस्कार, उन सबको नमस्कार जिन्हे मंजिल (साध्य) का पता है। असल में मंजिल को नमस्कार। मंजिल की और बढनेवालों को नमस्कार। नमो प्रथमेशानं, में बहुवचन है, इस पद में जगत में जितने साधक हैं, भविष्य में जितने होंगे और वर्तमान में जितने हैं, उन सबको नमस्कार करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है।

ॐ नमो महासिद्धानं – दूसरे पद में महासिद्धों को नमस्कार किया है। सिद्ध का अर्थ होता है, वे जिन्होंने पा लिया। वे जिस साध्य या सिद्धि को प्राप्त करना चाहते थे उसे प्राप्त कर लिया। सिद्धि अर्थात उपलव्धि अर्थात साध्य। 'सिद्ध' प्रथमेश से छोटा नहीं होता लेकिन पद में नंबर दो पर रखा गया। प्रथमेश वह है जिसे अभी पाना है, प्राप्त करना है। लेकिन ध्यान रहे उनको ऊपर रखा गया, जो पाने की प्रक्रिया में है। जिन्होंने पा लिया उनको नंबर दो पर रखा गया। सिद्ध बनने के यात्रा का प्रारम्भ प्रथमेश (साधक) बनने से आरम्भ होता है। पहले सिद्ध नहीं होता, साधना के पथ पर चल कर साधक 'सिद्ध' बनता है। ॐ नमो महासिद्धानं - मात्र सिद्धों को नमस्कार नहीं। महासिद्धों को नमन। मात्र पा लेना या सिद्ध बनना पर्याप्त नहीं है। सिद्ध बनना यात्रा के मध्यबिंदु तक पहुचना है। यात्रा समाप्त नहीं हुई। संस्मरण, अनुभव, अनुभूति की सजगसाधना सिद्ध को महासिद्ध में रूपांतरित करती है। जो पाना है उसे सम्पूर्णता, समग्रता से, विशेष प्रावीण्यता के साथ पानेवालों को नमस्कार।

तीसरा सूत्र कहता है, जगदगुरुं को नमस्कार। जगद (जगत) में जितने गुरु है उन सभी को नमस्कार। गुरु अर्थात जो सिखाता है, जो मार्गदर्शित करता है अपने आचरण, ज्ञान और उपदेश के द्वारा। गुरु अर्थात आचार्य। आचार्य का अर्थ है जिसने समग्रता से, सम्पूर्णता से पाया भी, आचरण में लाया भी, जो महासिद्ध भी बना और उपदेश भी कर रहा है, अन्यों को सीखा भी रहा है। पहले दो पदों में लिया गया है और इस तीसरे पद में देने की प्रक्रिया है। याचक परिवर्तित हुवा है 'दाता' में। गुरु मौन हो सकता है, और केवल आचरण देखकर न समझ पानेवाले लोगों पर करुणा कर के जो बोलकर भी समझाये उस गुरु को नमस्कार।

चौथे चरण में सदाशिवं को नमस्कार। यजुर्वेद में शिव का अर्थ 'शांतिदाता' बताया गया है। शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, कल्याणकारी या शुभकारी। 'शि' का अर्थ है - अधर्म/पापों का नाश करने वाला, जबकि 'व' का अर्थ देनेवाला यानी 'दाता'। मात्र धर्म/पुण्य के मार्गपर चलना पर्याप्त नहीं है अपितु अधर्म/पापों का क्रियाशील विरोध अर्थात उसका नाश करना भी आवश्यक है। अधर्म या पाप अर्थात असत्य, द्वेष और अन्याय। सदाशिव को नमस्कार अर्थात सदैव ही असत्य, द्वेष, अन्याय का नाश करनेवालों तथा सत्य, प्रेम और न्याय देनेवालों को नमस्कार।

पांचवे चरण में एक सामान्य नमस्कार है। ॐ नमो सर्वे साधूनां। साधु अर्थात सज्जन जो स्वयं सत्य, प्रेम, न्याय रूपी धर्म के मार्ग पर चलता हो। साधू इतना सरल भी हो सकता है जो उपदेश देने में भी संकोच करे। कोई इतना सरल भी हो सकता है कि अपने साधुता को भी छिपाए। पर उनको भी नमस्कार पहुँचना चाहिए। जगत में जो भी साधू हैं, उन सबको नमस्कार। ॐ नमो सर्वे साधूनां।

अस्तित्व में कोई कोना न बचे, अज्ञात, अनजान, अपरिचित, पता नहीं कौन साधू है, पता नहीं कौन साधक/प्रथमेश है, पर श्रद्धा से भरकर जो ये पांच नमन कर पाता है उसके सारे पाप विनष्ट हो जाते हैं, समाप्त होते है। ॐ नमो प्रथमेशानं, ॐ नमो महासिद्धानं, ॐ नमो जगदगुरुं, ॐ नमो सदाशिवं, ॐ नमो सर्वे साधूनां।

शोधकर्ताओं और विद्वानों का मानना है की पुरातन साहित्य में दिए गए मन्त्रों, यंत्रों और प्रतीकों के दो अर्थ होते है, एक लौकिक अर्थ जो प्रथमदृष्टया दिखाई देता है और दूसरा उनमें छिपा हुवा रहस्य। पञ्चनमस्कार महामन्त्र में पहला नमस्कार है- "ॐ नमो प्रथमेशानं"। प्रथमेश अर्थात गणेशजी को नमस्कार। महासिद्ध, जगदगुरु और सदाशिव यह भगवान महेश (शिव) के नाम है, तो भगवान महेशजी को नमस्कार। यह तो हुए लौकिक अर्थ लेकिन इस महामंत्र के रहस्य-अर्थ को समझने पर ज्ञात होता है की इसमें समग्र जीवन दर्शन का मार्गदर्शन भी किया गया है। तथ्य बताते है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बाद कई शतकों तक प्रतिदिन प्रातः पञ्चनमस्कार महामंत्र को नित्य प्रार्थना के रूप में बोला जाता था, श्रावण मास में तथा विशेष अवसरों पर पञ्चनमस्कार महामंत्र का जाप किया जाता था। ये पंचनमस्कार माहेश्वरी संस्कृति की अनमोल धरोहर है।

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