माहेश्वरी रत्न शेठ दामोदरदास राठी का जीवन परिचय


Seth Damodardas Rathi Biography In Hindi, शेठ दामोदरदासजी राठी भारत के चमकते हुऐ सितारों में से एक थे। निष्काम दानी, भारत के उज्वल पुरूष-रत्न, भारत माता के सच्चे सपूत, मारवाड़ मुकुट थे। शेठ दामोदरदासजी राठी को माहेश्वरी समाज का (माहेश्वरीयों का) राजा कहा जाता था। आपको तिलक युग का भामाशाह कहा जाता है l

दामोदरदास राठी का जन्म 8 फरवरी सन् 1884 ई. को पोकरण (मारवाड़) में सेठ खींवराजजी राठी के घर हुआ। आप आरम्भ से ही होनहार व मेघावी थे। मास्टर श्री प्रभुदयालजी अग्रवाल की संरक्षता में व मिशन हाई स्कूल ब्यावर में आपने मेट्रिक तक विद्याध्ययन किया। 15-16 वर्ष की आयु में ही आप लोकहित कार्यों में योगदान देने लगे व साथ ही में अपने व्यवसाय कार्य की देख-रेख करते रहे। आप अत्यन्त कुशल व्यवसायी थे। आपकी कृष्णा मिल्स् सन् 1893 ई. में भारतवर्ष भर के मारवाडियों में सर्व प्रथम चली। भारत के प्रमुख-प्रमुख नगरों में आपकी दुकानें जीनिंग फैक्ट्रीज् व पे्रसेज् थी। आप सिर्फ 19 वर्ष की आयु में सन् 1903 में ब्यावर म्युनिसिपेल्टी के सदस्य चुने गये। आपने सच्चे सेवक की भांति जनता की सेवा की। अतः आम जनता में आप लोकप्रिय हो गये।

आप (दामोदरदास राठी) राष्ट्रीय एंव् क्रान्तिकारी दल के थे। आपके विचार महात्मा तिलक व अरविन्द घोष के थे। आपने क्रान्तिकारियों की तन-मन-धन से सेवा की। देश के बड़े-बडे नेताओं से आपका सम्पर्क था। लोकमान्य तिलक व योगीराज अरविन्द को आप ब्यावर लाने में सफल हुऐ। राष्ट्र के महापिता श्री दादा भाई नौरोजी, भारतभूषण मालवीय जी, बॅगाल के बूढे शेर बापू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, अमृत-बाजार पत्रिका के बाबू मोतीलाल घोष व पंजाब केसरी लाला लाजपतराय आप पर बहुत स्नेह रखते थे। राष्ट्रवर खरवा के राव गोपालसिंहजी आपके अन्यतम मित्र थे। आप स्वदेशी के अनन्य भक्त थे। देशवासियों के दैनिक व्यवहार की समस्त वस्तुएं देश में ही तैयार कराने की व्यवस्था हो जिससे भारत की गरीब जनता को भरपेट भोजन मिल सके ऐसा आपका सोचना था।

वर्ष 1908 में मात्र 24 वर्ष कि उम्र में दामोदरदास राठी ने माहेश्वरी समाज का संगठन खड़ा करने तथा संगठन कि आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए 21,000/- रुपयें डोनेशन (दान) दिया था जिसका मुल्य आज के हिसाब से करीब रु. 20,00,00,00,000/- (दो हजार करोड़ रुपये) से ज्यादा है। कै. श्री दामोदरदासजी राठी ने 'अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा (ABMM)' में महामंत्री के रूप में भी अपनी सेवाएं दी है।

आप उच्चकोटि के व्याख्यानदाता, शिक्षा-प्रसारक व साहित्य सेवी थे । इस हेतु आपने कई वाचनालय, पुस्तकालय, पाठशालाएं, विद्यार्थीगृह व शिक्षा-मण्डल खोले तथा अनेको अनाथालय व गुरूकुलों को आर्थिक सहायता दी l हिन्दू विश्व विद्यालय के स्थापनार्थ महामना मालवीयजी को ब्यावर आने पर 11,000 /- रू. भेंट (दान) किये जिसका मुल्य आज के हिसाब से करीब रु. 10,00,00,00,000/- (एक हजार करोड़ रुपये) से ज्यादा है। सनातन धर्म कॉलेज ब्यावर व मारवाड़ी शिक्षा मण्ड़ल (नवभारत विद्यालय) वर्धा आज भी आपकी स्मृति के रूप में विद्यमान है। आप राष्ट्रभाषा हिन्दी के तो प्रबलतम पुजारी थे।


माहेश्वरी समाज की सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक प्रबंधन संस्था 'माहेश्वरी अखाड़ा' द्वारा दिया जानेवाला माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च सम्मान 'माहेश्वरीरत्न' पुरस्कार वर्ष 2013 में कै. शेठ दामोदरदासजी राठी को दिया गया। यह प्रतिष्ठित एवं सर्वोच्च सम्मान (पुरस्कार) कै राठी को मरणोपरांत मिला है। माहेश्वरी रत्न पुरस्कार शुरू किये जाने के बाद यह पुरस्कार प्राप्त होनेवाले आप पहले व्यक्ति है l 

शेठ दामोदरदासजी राठी सहृदय, सरल स्वभावी, निरभिमानी, न्याय-प्रिय, सत्यनिष्ठ प्रखर बुद्धि के व्यक्ति थे। आपके धार्मिक व सामाजिक विचार उदार थे। आपने सदैव माहेश्वरियों के मूल सिद्धांतों का पालन किया और "अपने लिए नहीं बल्कि कमाना है धर्मकार्य, देशकार्य, समाजकार्य और जनसेवा के कामों में दान करने के लिए" इस माहेश्वरियों की जीवनपद्धति को पूर्ण रूप से जिया l आपका स्वर्गवास 2 जनवरी सन् 1918 में 34 साल की अल्प आयु में ही हो गया। परन्तु इतनी कम उम्र में समाज और भारत माता के वो त्वरित काम कर गये जिन्हें अन्य के लिऐ करना असम्भव था। आपकी मृत्यु का समाचार पाकर सारा भारत-वर्ष शौक मग्न हो गया। आपके निधन पर अनेको स्थानों पर शौक संभाऐं हुई । भारत के सभी प्रमुख-प्रमुख समाचारपत्रों ने आपकी अकाल मृत्यु पर अनेकों आंसू बहाये।

Goddess Maheshwari


वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा विभिन्न शास्त्रों में देवाधिदेव शिव के सगुन-साकार रूप को महादेव अथवा महेश्वर के नाम से जाना जाता है l महेश्वर की अर्धांगिनी है- देवी महेश्वरी l इसी देवी महेश्वरी को आदिशक्ति, महादेवी, शिवा (शिवानी), अम्बा, जगदम्बा, दुर्गा, भवानी, चामुण्डा, शक्ति, पराशक्ति, जगतजननी, सर्वकुलमाता, माँ, त्रिपुरसुंदरी, माया, महामाया, आदि-माया, भगवती तथा मूलप्रकृति आदि नामों से भी जाना गया है।

'सर्व चैतन्य रूपां तमाद्यां विद्यां च धीमहि। बुद्धिं या न: प्रचोदयात्॥ सगुणा निर्गुणा चेतिद्विधा प्रोक्ता मनीषिभ:। सगुणा रागिभि: प्रोक्ता निर्गुणा तु विरागिभि:॥' -देवीभागवत-1/1)
देवी भागवत के अनुसार वह सगुण-निर्गुण दोनों हैं, रागी (गृहस्थ/भौतिक-सांसारिक सुखों की इच्छा रखनेवालें) सगुण की तथा विरागी (संन्यासी/मोक्षप्राप्ति की इच्छा रखनेवालें) निर्गुण की उपासना करते हैं।

*माहेश्वरी सर्वकुलमाता देवी महेश्वरी की PNG image के लिए इस link पर click कीजिये > Goddess Maheshwari (देवी महेश्वरी)

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । 
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते ।।

Ganeshji Connection of Maheshwaris


माहेश्वरीयों का गणेशजी कनेक्शन...

देवी पार्वती के कहने पर भगवान महादेव (महेशजी) ने गणेश के कटे हुए सिर पर हाथी का सिर जोड़कर गणेशजी को पुनर्जीवन दिया ठीक उसी तरह से ऋषियों के शाप के कारन मृतवत पड़े 72 क्षत्रिय उमरावों को देवी पार्वती के कहने पर ही भगवान महेशजी ने पुनः जीवित किया, पुनर्जीवन दिया. जैसे पुत्र को पिता का नाम मिलता है वैसे ही पुनर्जीवित किये हुये उमरावों को भगवान महेश्वर और माता महेश्वरी ने "माहेश्वरी" यह अपने नाम से जुडी नई पहचान, नया नाम दिया (देखें link- माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास). यहीं से माहेश्वरी वंश की शुरुवात हुई. यह है गणेशजी और माहेश्वरीयों के जन्म में समानता. इसीलिए जैसे देवी पार्वती गणेशजी की माता है उसी तरह माहेश्वरीयों की भी माता है. जैसे गणेशजी माता पार्वती के पुत्र है वैसे ही माहेश्वरी भी माता पार्वती के पुत्र है. यह है माहेश्वरीयों का गणेशजी कनेक्शन. गणेशजी की जैसी भक्ति अपनी माता-पिता महेश-पार्वती पर, माहेश्वरियों की भी वैसी ही भक्ति अपने प्रथम आराध्य महेश-पार्वती पर ! भगवान महेशजी और आदिशक्ति पार्वती की जैसी कृपा पुत्र गणेश पर वैसी ही कृपा है माहेश्वरीयों पर !!!





जय भवानी... जय महेश... जय गणेश !

Hartalika Teej


तीज का त्योंहार भगवान महेश (शिव) और माता पार्वती के भक्ति आराधना को समर्पित है जिसे भारतीय महिलाएं जीवन में विवाह, परिवार और पारिवारिक संबंधों के महत्व को समझने-समझाने की भावना के साथ मनाती हैं और अपने पुरे परिवार के समग्र कल्याण के लिए प्रार्थना करती हैं. यह पर्व ज्यादातर उत्तर भारत और नेपाल में मनाया जाता है. तीज का पर्व राजस्थान, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में महान उत्साह के साथ मनाया जाता है. माहेश्वरी समाज में "महेश नवमी" के बाद समाज के सबसे बड़े उत्सव के रूप में तीज के पर्व को मनाया जाता है. माहेश्वरी समाज के लिए, विशेषतः माहेश्वरी युवतियों और महिलाओं के लिए तीज का एक विशेष महत्व है.

तीज तीन प्रकार की है, (1) श्रावणी तीज (इसे छोटी तीज और हरियाली तीज के नाम से भी जाना जाता है. (2) कजरी तीज (इसे बड़ी तीज और सातुड़ी तीज के नाम से भी जाना जाता है. (3) हरतालिका तीज (कहीं कहीं पर इसे हरितालिका तीज कहा जाता है अपितु इसका सही नाम 'हरतालिका तीज' ही है). मान्यता, परंपरा और शास्त्रों के अनुसार, विवाह होने तक कुमारिकाओं द्वारा हरतालिका तीज का व्रत किया जाता है और विवाह के पश्चात छोटी तीज और बड़ी तीज (श्रावणी तीज और सातुड़ी तीज) का व्रत किया जाता है. सुयोग्य पति पाने के लिए अविवाहित युवतियों के लिए हरितालिका तीज के व्रत का विधान है. अपने सुहाग को अखण्ड बनाए रखने के लिए विवाहित महिलाओं द्वारा छोटी तीज और बड़ी तीज के पर्व को मनाने का विधान है.

हरतालिका तीज -
सुयोग्य और अनुरूप पति को पाने की कामना का परम पावन व्रत 'हरतालिका तीज' भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को किया जाता है. "हर" भगवान महेश (महादेव) का ही एक नाम है और चूँकि महादेव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती ने सर्वप्रथम इस व्रत को रखा था, इसलिए इस पावन व्रत को 'हरतालिका तीज' कहा जाता है. विवाहित महिलाएं भी इस व्रत को कर सकती है, करती है लेकिन हरतालिका तीज यह मुख्यतः कुवांरी युवतियों के द्वारा मनाने का त्योंहार है जो उनके द्वारा अपने लिए सुयोग्य और अनुरूप पति को प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक किया जाता है.

इस दिन विशेष रूप से गौरी−शंकर (महेश-पार्वती) का ही पूजन किया जाता है. चूँकि यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते से सम्बंधित है इसलिए यह महेश-पार्वती के साकार (शारीरिक रचना वाले) स्वरुप में पूजा-आराधना का पर्व है (अर्थात तीज के पर्व में शिवपिंड अथवा शिवलिंग के स्वरुप में नहीं बल्कि महादेव-पार्वती के मूर्ति अथवा तसबीर की पूजा का महत्व है. कुछ (अज्ञानी) लोगों द्वारा यह प्रचारित किया जाता है की भगवान महादेव के मूर्ति की पूजा वर्जित है लेकिन यह सही नहीं है. भगवान महादेव की साकार और निराकार दोनों ही स्वरूपों में पूजा की जा सकती है. महादेव साकार और निराकार दोनों ही स्वरूपों में पूजनीय है. शिव महापुराण और शास्त्रों के अनुसार सन्यासियों के लिए भगवान महादेव के निराकार स्वरुप की पूजा का और गृहस्थियों के लिए साकार स्वरुप की पूजा का विधान है. शिवपिंड और शिवलिंग महादेव के निराकार स्वरुप का प्रतिक है और शारीरिक आकार दर्शाती मूर्ति तथा तसबीर उन्ही देवाधिदेव महादेव के साकार स्वरुप का प्रतिक है).


हरतालिका तीज का व्रत करने वाली युवतियां-स्त्रियां इस दिन सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं और नहा धोकर पूरा श्रृंगार करती हैं. पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर गौरी−शंकर (महेश-पार्वती) की प्रतिमा स्थापित की जाती है. इसके साथ पार्वती जी को सुहाग (श्रृंगार) का सारा सामान ((सुगन्धित फूलों का गजरा, चूड़ियां, बिछिया, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, मेहंदी आदि) चढ़ाया जाता है. माहेश्वरी समाज में महेश-पार्वती को युग्मपत्र (सोनपत्ता/आपटा-पर्ण) चढाने का भी विधान और परंपरा है. हरतालिका तीज के दिन उपवास करें यह प्रचारित है, प्रचलित है; कहा जाता है की हरतालिका व्रत निर्जला किया जाता हैं अर्थात पूरा दिन एवं रात अगले सूर्योदय तक जल ग्रहण नहीं किया जाता है लेकिन माहेश्वरी संस्कृति के मूल परंपरा के अनुसार इस दिन उपवास का अथवा जल ग्रहण नहीं करने का (निर्जला रहने का) कोई विधान नहीं है. माहेश्वरी समाज की मूल परंपरा के अनुसार हरतालिका व्रत में उपवास करने का अथवा निर्जला रहने का कोई विधि-विधान नहीं है. इस दिन महेश-पार्वती के मंदिर में होपहर में महा आरती (भगवान महेश, माता गौरी एवम गणेशजी की पूजा और आरती) की जाती है. हरतालिका व्रत के दिन रतजगा किया जाता हैं. रात में भजन, कीर्तन करते हुए जागरण कर तीन बार आरती की जाती है और महेशजी को ब्यावलो (शिव-पार्वती विवाह की कथा) को सुना जाता है.



माहेश्वरीयों की विशेष पहचान, 'ऋषि पंचमी' को रक्षाबंधन | Raksha Bandhan on Rishi Panchami, This Tradition is related to Origin Day of Maheshwari Community, Day of Mahesh Navami | Rakshabandhan | Rakhi

Unique identification of Maheshwaris,
Raksha Bandhan on the day of Rishi Panchami.

आम तौरपर भारत में रक्षाबंधन का त्योंहार श्रावण पूर्णिमा (नारळी पूर्णिमा) को मनाया जाता है लेकिन माहेश्वरी समाज (माहेश्वरी गुरुओं के वंशज जिन्हे वर्तमान में छः न्याति समाज के नाम से जाना जाता है अर्थात पारीक, दाधीच, सारस्वत, गौड़, गुर्जर गौड़, शिखवाल आदि एवं डीडू माहेश्वरी, थारी माहेश्वरी, धाटी माहेश्वरी, खंडेलवाल माहेश्वरी आदि माहेश्वरी समाज) में रक्षा-बंधन का त्यौहार ऋषिपंचमी के दिन मनाने की परंपरा है. इस परंपरा का सम्बन्ध माहेश्वरी वंशोत्पत्ति से जुड़ा हुवा है.


विदित रहे की माहेश्वरी समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी ऋषि पंचमी के दिन रक्षाबंधन (राखी) का त्योंहार मनाने की परंपरा चली आई है. एक मान्यता यह है की जब माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई तब जो माहेश्वरी समाज के गुरु थे जिन्हें ऋषि कहा जाता था उनके द्वारा विशेष रूप से इसी दिन रक्षासूत्र बांधा जाता था इसलिए इसे 'ऋषि पंचमी' कहा जाता है. रक्षासूत्र मौली के पचरंगी धागे से बना होता था और उसमें सात गांठे होती थी. वर्तमान समय में इसी रक्षासूत्र ने राखी का रूप ले लिया है और इसे बहनों द्वारा बांधा जाता है.

प्राचीनकाल में शुभ प्रसंगों में, प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन तथा 'ऋषि पंचमी' के दिन गुरु अपने शिष्यों के हाथ पर, पुजारी और पुरोहित अपने यजमानों के हाथ पर एक सूत्र बांधते थे जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था, इसे ही आगे चलकर राखी कहा जाने लगा. वर्तमान समय में भी रक्षासूत्र बांधने की इस परंपरा का पालन हो रहा है.

आम तौर पर यह रक्षा सूत्र बांधते हुए ब्राम्हण "येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।" यह मंत्र कहते है जिसका अर्थ है- "दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं. हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो" लेकिन तत्थ्य बताते है की माहेश्वरी समाज में रक्षासूत्र बांधते समय जो मंत्र कहा जाता था वह है-
स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु,
विद्याविवेककृतिकौशलसिद्धिरस्तु।
ऐश्वर्यमस्तु विजयोऽस्तु गुरुभक्ति रस्तु,
वंशे सदैव भवतां हि सुदिव्यमस्तु।।
(अर्थ- आप सदैव आनंद से, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें. विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें. ऐश्वर्य व सफलता को प्राप्त करें तथा गुरु भक्ति बनी रहे. आपका वंश सदैव दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बना रहे. इसका सन्दर्भ भी माहेश्वरी उत्पत्ति कथा से है. माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित कथानुसार, निष्प्राण पड़े हुए उमरावों में प्राण प्रवाहित करने और उन्हें उपदेश देने के बाद महेश-पार्वती अंतर्ध्यान हो गये. उसके पश्चात ऋषियों ने सभी को "स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु...." मंत्र कहते हुए सर्वप्रथम (पहली बार) रक्षासूत्र बांधा था. माना जाता है की यही से माहेश्वरी समाज में रक्षासूत्र (रक्षाबंधन या राखी) बांधने की शुरुवात हुई. उपरोक्त रक्षामंत्र भी मात्र माहेश्वरी समाज में ही प्रचलित था/है. गुरु परंपरा के ना रहने से तथा माहेश्वरी संस्कृति के प्रति समाज की अनास्था के कारन यह रक्षामंत्र लगभग विस्मृत हो चला है लेकिन माहेश्वरी संस्कृति और पुरातन परंपरा के अनुसार राखी को बांधते समय इसी मंत्र का प्रयोग किया जाना चाहिए.


कुछ माहेश्वरी समाजबंधु रक्षाबंधन का पर्व माहेश्वरी परंपरा के अनुसार "ऋषि पंचमी" को मनाने के बजाय श्रावण पूर्णिमा को ही मना रहे है तो कुछ समाजबंधु यह पर्व मनाते तो ऋषि पंचमी के हिसाब से ही है लेकिन अपनी सुविधा के अनुसार 2-4 दिन आगे-पीछे रक्षाबंधन कर लेते है जो की उचित नहीं है. शास्त्रों और परम्पराओं के अनुसार कुछ विशेष दिनों का, कुछ विशेष स्थानों का अपना एक महत्व होता है. दीवाली 'दीवाली' के दिन ही मनाई जाती है, किसी दूसरे दिन नहीं. क्या अपनी सुविधा के अनुसार 'गुढी' गुढीपाडवा के बजाय 2-4 दिन आगे-पीछे लगाई (उभारी) जाती है? तो रक्षाबंधन ऋषिपंचमी के दिन के बजाय किसी और दिन कैसे मनाया जा सकता है? यदि माहेश्वरी हैं तो रक्षा बंधन का त्योंहार "ऋषी पंचमी" के दिन ही मनाकर गर्व महसूस करें. यदि माहेश्वरी हैं तो... रक्षाबंधन का त्योंहार "ऋषी पंचमी" के दिन ही मनाये.


दूसरी एक बात...
आम तौर पर रक्षाबंधन (राखी) का त्योंहार श्रावणी पूर्णिमा (राखी पूर्णिमा) के दिन मनाया जाता है लेकिन माहेश्वरी समाज में परंपरागत रूपसे रक्षाबंधन का त्योंहार ऋषि पंचमी के दिन मनाया जाता है. "ऋषि पंचमी के दिन रक्षाबंधन" यह बात दुनियाभर में माहेश्वरी संस्कृति (माहेश्वरीत्व) की, माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान बनी है; यह हम माहेश्वरीयों की सांस्कृतिक धरोहर है, विरासत है.  माहेश्वरी रक्षाबंधन के इस त्योंहार को भाई-बहन के गोल्डन रिलेशनशिप के पवित्र धार्मिक त्योंहार के रूपमें परंपरागत विधि-विधान और रीती-रिवाज के साथ मनाया जाता है, मनाया जाना चाहिए लेकिन विगत कुछ वर्षों से, कई बहने राखी बांधने के बाद भाई को श्रीफल (नारियल) के बजाय रुमाल या कोई दूसरी चीज दे रही है. क्या भगवान के मंदिर में नारियल फोड़कर चढाने के बजाय रुमाल फाड़ कर चढ़ाया जा सकता है...? हर चीज का अपनी जगह एक महत्व होता है इस बात के महत्व को समझते हुए श्रीफल की जगह 'श्रीफल' ही दिया जाना चाहिए (हाँ, इसे कुछ विशेष सजावट के साथ या ले जाने में सुविधा हो इस तरह से पैकिंग करके दिया जा सकता है). भाईयों को भी चाहिए की बहन की मंगलकामनाओं और दुवाओं के प्रतिक के रूपमें दिए जानेवाले श्रीफल को अपने साथ अपने घर पर ले जाएं और इसे घर के सभी परिवारजनों के साथ प्रसाद के रूपमें ग्रहण करें.

जिन्हे सगी बहन ना हो वे अपने चचेरी बहन से राखी बांधे लेकिन माहेश्वरी संस्कृति के अनुसार ऋषि पंचमी के दिन केवल माँ-जाई (सगी) बहन से राखी बांधना पर्याप्त है. जीन भाईयोको माँ-जाई बहन और चचेरी बहन ना हो वह, मित्र की बहन से या अपने कुल के पुरोहित से अथवा मंदिर के पुजारी से राखी बंधाए, और यदि कोई बहन को भाई ना हो तो वह भगवान गणेशजी को राखी बांधे.









श्री गणेश चतुर्थी के अगले दिन होती है- ऋषि पंचमी (माहेश्वरी रक्षाबंधन)




समस्त माहेश्वरी समाजजनों को ऋषि पंचमी (माहेश्वरी रक्षाबंधन) की हार्दिक शुभकामनाएं !

माहेश्वरी समाज का 5150 वा वंशोत्पत्ति दिवस- महेश नवमी 2017


परंपरागत मान्यता के अनुसार माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति युधिष्ठिर सम्वत 9 के जेष्ठ शुक्ल नवमी को हुई थी, तबसे माहेश्वरी समाज प्रतिवर्ष की जेष्ट शुक्ल नवमी को "महेश नवमी" के नाम से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिन के रूपसे बहुत धूम धाम से मनाता है. माहेश्वरी समाज के ऐतिहासिक साहित्य में माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति के समय के बारे में एक श्लोक के द्वारा बताया गया है, वह श्लोक है-  
आसन मघासु मुनय: शासति युधिष्ठिरे नृपते l
सूर्यस्थाने महेशकृपया जाता माहेश्वरी समुत्पत्तिः ll
अर्थ- जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, युधिष्ठिर राजा शासन करता था. सूर्य के स्थान पर अर्थात राजस्थान प्रान्त के लोहार्गल में (लोहार्गल- जहाँ सूर्य अपनी पत्नी छाया के साथ निवास करते है, वह स्थान जो की माहेश्वरीयों का वंशोत्पत्ति स्थान है), भगवान महेशजी की कृपा (वरदान) से l कृपया - कृपा से, माहेश्वरी उत्पत्ति हुई.

आसन मघासु मुनय:
मुनया (मुनि) अर्थात आकाशगंगा के सात तारे जिन्हे सप्तर्षि कहा जाता है. ब्राह्मांड में कुल 27 नक्षत्र हैं. सप्तर्षि प्रत्येक नक्षत्र में 100 वर्ष ठहरते हैं. इस तरह 2700 साल में सप्तर्षि एक चक्र पूरा करते हैं. पुरातनकाल में किसी महत्वपूर्ण अथवा बड़ी घटना का समय या काल दर्शाने के लिए 'सप्तर्षि किस नक्षत्र में है या थे' इसका प्रयोग किया जाता था. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है की सप्तर्षि उस समय मघा नक्षत्र में थे. द्वापर युग के उत्तरकाल (जिसे महाभारतकाल कहा जाता है) में भी सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे तो इस तरह से बताया गया है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति द्वापरयुग के उत्तरकाल में अर्थात महाभारतकाल में हुई है. श्लोक के 'शासति युधिष्ठिरे नृपते' इस पद (शब्द समूह) से इस बात की पुष्टि होती है की यह समय महाभारत काल का ही है.

शासति युधिष्ठिरे नृपते
पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर का इन्द्रप्रस्थ के राजा के रूप में राज्याभिषेक 17-12-3139 ई.पू. के दिन हुआ, इसी दिन युधिष्ठिर संवत की घोषणा हुई. उसके 5 दिन बाद उत्तरायण माघशुक्ल सप्तमी (रथ सप्तमी) को हुआ, अतः युधिष्ठिर का राज्याभिषेक प्रतिपदा या द्वितीया को था. युधिष्ठिर के राज्यारोहण के पश्चात चैत्र शुक्ल एकम (प्रतिपदा) से 'युधिष्ठिर संवत' आरम्भ हुवा. महाभारत और भागवत के खगोलिय गणना को आधार मान कर विश्वविख्यात डॉ. वेली ने यह निष्कर्ष दिया है कि कलयुग का प्रारम्भ 3102 बी.सी. की रात दो बजकर 20 मिनट 30 सेकण्ड पर हुआ था. यह बात उक्त मान्यता को पुष्ट करती है की भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत की गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है. युधिष्ठिर संवत भारत का प्राचीन संवत है जो 3142 ई.पू. से आरम्भ होता है. हिजरी संवत, विक्रम संवत, ईसवीसन, वीर निर्वाण संवत (महावीर संवत), शक संवत आदि सभी संवतों से भी अधिक प्राचीन है 'युधिष्ठिर संवत'. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति संवत (वर्ष) है- 'युधिष्ठिर संवत 9' अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति ई.पू. 3133 में हुई है. कलियुगाब्द (युगाब्द) में 31 जोड़ने से, वर्तमान विक्रम संवत में 3076 अथवा वर्तमान ई.स. में (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/गुड़ी पाड़वा/भारतीय नववर्षारंभ से आगे) 3133 जोड़ने से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति वर्ष आता है. वर्तमान में ई.स. 2017 चल रहा है. वर्तमान ई.स. 2017 + 3133 = 5150 अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5150 वर्ष पूर्व हुई है.

आज ई.स. 2017 में युधिष्ठिर संवत 5159 चल रहा है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति युधिष्ठिर संवत 9 में हुई है तो इसके हिसाब से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5150 वर्ष पूर्व हुई है. अर्थात "महेश नवमी उत्सव 2017" को माहेश्वरी समाज अपना 5150 वा वंशोत्पत्ति दिन मना रहा है. 

(योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक- "माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार)

महेशाष्टक (महेश वंदना)


देव, दनुज, ऋषि, महर्षि, योगीन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्ध, गन्धर्व सब महेश्वर को गा कर प्रसन्न करते है. महेशाष्टक, महेश चालीसा, महेश मानस स्तोत्र जैसे स्तोत्रों का पाठ करने से अद्भुत कृपा प्राप्त होती है. महेशाष्टकम् सर्वश्रेष्ठ एवं कर्णप्रिय स्तुतियों में से एक है. महेशाष्टक यह माहेश्वरी अखाडा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाडा) के पीठाधिपति महेशाचार्य श्री प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज द्वारा रचित भाव प्रस्तुति है. इस महेशाष्टक को घर में या मंदिर में महेश-पार्वती/महेश परिवार के समीप श्रृद्धा सहित पाठ करने से मन को सुख मिलता है, भगवान महेश-पार्वती और गणेशजी की कृपा प्राप्त होती है.

महेशाष्टक (महेश वंदना)

महेशं अनन्तं शिव महादेवम् करुणावतारं गिरिजावल्लभम् ।
देवाधिदेवं भक्तप्रतिपालकम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। १ ।।

योगीयोगेश्वरं महाकालकालम् अर्धनारीश्वरं गणाधिनायकम् ।
हर सत्यं शिवं सुंदरं मधुरम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। २ ।।

सगुणं साकारं निर्गुण निराकारम् गुणातीतरूपं तपोयोगगम्यम् ।
शाश्वतं सर्वज्ञं श्रुतिज्ञानगम्यम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। ३ ।।

दाता भोलेनाथं त्राता वैद्यनाथम् महामृत्युंजयं नटराज नृत्यम् ।
आदिगुरु ज्ञानं त्वं जगतगुरुम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। ४ ।।

अनादि अनन्तं ओंकारस्वरूपम् जगन्नाथनाथं ब्रम्हांडनायकम् ।
सोम साधूसिद्धाःस्वांतस्थमीश्वरम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। ५ ।।

रुद्रं वीरभद्रं भुजंगभूषणम् कर्पूरगौरं जटाजूटधारणम् ।
पार्वतीप्रियं सुरासुरपूजितम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। ६ ।।

गवेन्द्राधिरूढं कराभ्यां त्रिशुलम् साधुनां रक्षितं दुष्टाय मर्दितम् ।
परिवारसमेतं कैलासवसन्तम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। ७ ।।

नमो पञ्चवक्त्रं भवानीकलत्रम् सहस्त्रलोचनं महापापनाशम् ।
नमामि नमामि भवानीसहितम् गजाननतातं उमानाथं नमो ।। ८ ।।

महेशस्याष्टकं य: पठेदिष्टदं प्रेमत: प्रत्यहं पूरुष: सस्पृहम् l
वृत्तत: सुन्दरं कर्तृमहेश्वरं तस्य वश्यो हरर्जायते सत्वरम् ।।

॥ इति श्रीमहेशाचार्यप्रेमसुखानन्दविरचितं श्रीमहेशाष्टकं संपूर्णम् ॥

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श्री श्री श्रीजी महाराज की पावन स्मृति को शत शत नमन !


निम्बार्क पीठाधीश्वर आचार्य 1008 जगद्गुरु श्री श्री श्रीजी महाराज का देवलोकगमन हो गया है । श्रीजी महाराज की प्रसिद्धि निम्बार्क सम्प्रदाय में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष के धार्मिक एवं आध्यात्मिक जगत में थी ।आप उच्च कोटि के संत थे और आपके जाने से सनातन धर्म की अपूरणीय क्षति हुई है । श्रीजी महाराज की पावन स्मृति को शत शत नमन एवं भावभीनी श्रद्धांजलि !
-प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी (पीठाधिपति- माहेश्वरी अखाडा)

माहेश्वरी ही है आचार्य किशोरजी व्यास एवं मारवाड़ी ब्राम्हण


जिन्हे मारवाड़ी ब्राम्हण कहा जाता है वे माहेश्वरियों से अलग नहीं बल्कि "माहेश्वरी" ही है

हाल के दिनों में देशभर के समाजबंधुओं से चर्चा में कुछ सजग समाजबंधुओं द्वारा कुछ प्रश्न उपस्थित किये गए है- आचार्य किशोरजी व्यास 'माहेश्वरी' है या नहीं? जिनको हम माहेश्वरी या मारवाड़ी ब्राम्हण कहते है वे माहेश्वरी है या नहीं? अगर से वे माहेश्वरी है तो उन्हें समाज के संगठनों में क्यों शामिल नहीं किया गया है? इस बात पर माहेश्वरी समाज की सर्वोच्च आध्यात्मिक संस्था 'माहेश्वरी अखाडा' के पीठाधिपति प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने निर्णय दिया है की आचार्य किशोरजी व्यास एवं जो मारवाड़ी ब्राम्हण है, "माहेश्वरी" ही है.

इस निर्णय के आधार को समाज के सामने प्रस्तुत करने की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने कहा की ...इस बातको हमें तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर समझना होगा, इसके मूल में जाना होगा. कुछ समाजबंधुओं को माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बारे में पूर्णरूपेण जानकारी नहीं होने के कारन उनके मन में ऐसा प्रश्न आना स्वाभाविक है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के अनुसार जब माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई उसी समय भगवान महेशजी ने महर्षि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को माहेश्वरियों का गुरु बनाया (गुरुपद दिया). कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि (सप्त गुरु) कहा जाता है. एक सर्वमान्य परंपरा यह है की समाज के जो गुरु होते है वे उसी समाज के माने जाते है जिस समाज के वे समाजगुरु है, जैसे की जैनों के गुरु जैन ही होते है, सिखों के गुरु सिख ही होते है. इस सर्वमान्य परंपरा के अनुसार एवं माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के तथ्यों के आधारपर यह स्पष्ट है की उपरोक्त वर्णित सात ऋषियों (माहेश्वरी गुरुओं) के वंशज 'माहेश्वरी' ही है.

आम तौर पर इन्हें माहेश्वरी ब्राम्हण कहा जाता है. जब 'माहेश्वरी ब्राम्हण' इस शब्द का प्रयोग किया जाया है तो इसमें माहेश्वरी इस शब्द के लगने से ही यह प्रमाणित हो जाता है की वे माहेश्वरी ही है लेकिन कहीं कहीं इन्हें माहेश्वरी ब्राम्हण के बजाय मारवाड़ी ब्राम्हण भी कहा जाता है जिससे कुछ समाजबंधुओं को यह संदेह होता है की यह ब्राम्हण समाज तो मारवाड़ी ब्राम्हण है इन्हें केवल "माहेश्वरी" कैसे कहा जा सकता है. मारवाड़ यह राजस्थान के एक भूभाग का नाम है. मुग़ल काल व राजपूत शाषकों के समय से इस भूभाग को मारवाड़ के नाम से जाना जाने लगा. तथ्य बताते है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति इससे कई पूर्व में द्वापर युग के उत्तरार्ध में (अर्थात महाभारत काल) में हुई है, उस समय में राजस्थान को 'राजस्थान' के नाम से या राजस्थान के मारवाड़ को 'मारवाड़' नाम से जाना ही नहीं जाता था, बल्कि यह भूभाग मत्स्य देश (मत्स्य जनपद) के नाम से जाना जाता था. जब उस समय मारवाड़ ही नहीं था तो मारवाड़ी शब्द भी नहीं था. यह तो बाद में रहने के स्थान के नाम पर अस्तित्व में आया है. अर्थात जिन्हें हम मारवाड़ी ब्राम्हण कहते है वे मूलतः माहेश्वरी ही है. उपरोक्त वर्णित सात माहेश्वरी गुरुओं के वंशज (वर्तमान में जिनके उपनाम (सरनेम) पारीक, दायमा, दाधीच, व्यास आदि है) निःसंदेह रूप से माहेश्वरी है. इन्हें समाज के संगठनों में शामिल नहीं किया जाना यह अबतक की हुई बहुत बड़ी चूक है, इसे अविलम्ब दुरुस्त किया जाना चाहिए.