शालेय शिक्षा (एज्युकेशन) उपजीविका के लिए जरुरी सुविधाएँ जुटाने का सामर्थ्य देती है, तो संस्कार जीवन को सुखी बनाने की काबिलियत देते है। जीवन में जितना महत्व शालेय शिक्षा का है उतना ही बल्कि उससे कहीं ज्यादा महत्व अच्छे संस्कारों का है।
- योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी
प्रस्तावना
माहेश्वरी समाज की उच्चतम धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था "माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा रजि.)" के मार्गदर्शन में सेवाभावी समाजजनों द्वारा माहेश्वरी समाज के 6 से 13 वर्ष के बच्चों के लिए ग्रीष्मकालीन बाल संस्कार शिविर, साप्ताहिक बाल संस्कार वर्ग (सप्ताह में एक दिन/प्रत्येक रविवार को) पुरे देशभर में शुरू किया जाना, चलाया जाना प्रस्तावित है ताकि बच्चों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो और वे जीवन में समृद्धि तो प्राप्त करें ही साथ साथ एक सुखी-आनंदमय जीवन को भी प्राप्त कर सकें। उनमें खुद के व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ ही अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के उत्कर्ष की भावना का एवं इनके प्रति अपने कर्तव्यों का बोध भी रहे।
सभी समाजजनों से अनुरोध है कि वे इसका लाभ अधिक-से-अधिक बालकों को दिलायें ताकि आपके बच्चे ना सिर्फ सक्षम, समर्थ, एक बेहरतीन सूझ-बुझवाले बेहरतीन इंसान बने बल्कि एक बेहतरीन माहेश्वरी समाज का निर्माण भी हो सकें। एक ऐसा माहेश्वरी समाज जैसा अतीत में था, जिससे देश-दुनिया के अन्य समाज (अन्य समाज के लोग) प्रेरणा लेते थे, जिसका अनुकरण-अनुसरण करते थे।
- श्री माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा रजि.)
माहेश्वरी अखाड़ा के पीठाधिपति योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी का सन्देश
सभी माहेश्वरी समाजजनों को, माहेश्वरी मित्रों को सस्नेह जय महेश !
भारतीय संस्कृति और परंपरा में विवाह का उद्देश्य पाश्चिमात्य संस्कृति की तरह सिर्फ यौन कामना पूर्ण करना नहीं होता है बल्कि वंश को, विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संतान (बच्चों) को जन्म देना है। इससे ना सिर्फ वंश परंपरा आगे बढ़ती है बल्कि हमारी संस्कृति और विरासत भी आगे बढ़ती है। इसके लिए आवश्यक होता है की बच्चों को बाल्य अवस्था में अच्छी तथा सही शिक्षा (एज्युकेशन) और अच्छे संस्कार मिले। बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं। बाल्यावस्था में ही बच्चे के अंदर अच्छे संस्कार पड़ जायें तो वह भौतिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्यों के प्रति सजग रहकर मानव-जीवन के परम लक्ष्य को भी शीघ्र ही प्राप्त कर सकता है। बच्चों के जीवन का विद्यार्थी-जीवन काल सँभाल लिया जाये तो उसका भावी जीवन भी सँभल जाता है क्योंकि बाल्यकाल के संस्कार ही बच्चे के जीवन की आधारशिला हैँ।
अपने बच्चों का भावी जीवन सुखी-समृद्ध-आनंदमय हो इसलिए आज के समय में प्रत्येक माता-पिता-पालक अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने की कोशिश करते दिखाई देते है। यहाँ तक की उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा बच्चों के पढाई और शिक्षा पर लगाते है। इससे बच्चे अच्छी शिक्षा पाकर उनके जीवन और उपजीविका के लिए आवश्यक साधन-सुविधाएँ जुटा पाने के काबिल तो बन जाते है लेकिन जाने अनजाने में उन्हें अच्छे संस्कार देने की अनदेखी के चलते उनके मन में मानवीय मूल्यों के प्रति, अपने माता-पिता-परिवार-समाज और राष्ट्र के लिए उनके कर्तव्यों और दायित्व के प्रति कोई भावना अथवा संवेदना नहीं रहती। फिर वो सिर्फ अपने व्यक्तिगत सुख और हितों के बारेमें ही सोचते है। इसका परिणाम हम देखते है की आज की संतानें विवाह के बाद पत्नी आयी कि बस माता-पिता से कह देते हैं कि तुम-तुम्हारे, हम हमारे। कई तो ऐसी कुसंतानें निकल जाती हैं कि बेचारे बूढ़े माँ-बाप को ही धक्का देकर घर से बाहर निकाल देती हैं या खुद अपनी पत्नी-बच्चों के साथ उनसे अलग रहने चले जाते है। इससे कौन सुखी हो पाता है? माता-पिता को छोड़कर अलग रहनेवाला उनका बच्चा अपने माता-पिता की छत्रछाया गंवाकर क्या सुखी रह पाता है? दादा-दादी के प्यार-लाड-कोड, सुरक्षा तथा मार्गदर्शन के अभाव में क्या पोता-पोती सुख पाते है? बुढ़ापे में अपने बच्चे छोड़कर चले जाये तो क्या वो बूढ़े माता-पिता सुख पाते है? ऊपर से भले ही कोई दिखा नहीं रहा हो लेकिन अटल सत्य तो यही की कोई सुखी नहीं हो पाता। तो ऐसा क्यों हो जाता है? क्यों की बाल्य अवस्था में बच्चों की अच्छी शिक्षा की और तो बहुत ध्यान दिया गया लेकिन उन्हें अच्छे संस्कार देना रह गया, बच्चों को अच्छे संस्कार देने की और ध्यान ना देने की गलती हो गई। "संस्कार ददाति सुखम्" अर्थात संस्कार सुख देता है।
प्राचीन काल की गुरूकुल शिक्षा-पद्धति शिक्षा की एक सर्वोत्तम व्यवस्था थी। गुरूकुल में बालक निष्काम सेवापरायण, विद्वान एवं आत्मविद्या-सम्पन्न गुरूओं की निगरानी में रहने के पश्चात् देश व समाज का गौरव बढ़ायें, ऐसे युवक बनकर ही निकलते थे। लेकिन आज वह व्यवस्था नहीं रही। आज के स्कूलों-विद्यालयों में से शिक्षा पाकर युवक बस एक पैसे कमाने की मशीन बनकर बाहर निकलता है। बस एक ऐसी मशीन जिसमें कोई इमोशन, कोई भावना, कोई संवेदना नहीं होती है; होता है तो बस पैसा कमाने का हुनर। और शाश्वत सत्य यही है की सिर्फ बहुत ज्यादा पैसा कमा लेने से, बहुत ज्यादा धनवान बन जाने से ही कोई सुखी नहीं बन सकता, खुशियों को नहीं पा सकता क्यों की यदि सिर्फ पैसों से ही सुख और ख़ुशी मिलती तो गरीब आदमी कभी मुस्कराता हुवा दिखाई ही नहीं देता !
दुर्भाग्य से आजकल के स्कूलों-विद्यालयों में तो मैकाले-शिक्षा-प्रणाली के द्वारा बालकों को ऐसी दूषित शिक्षा दी जा रही है कि उनमें विवेक-बल-धैर्य-संयम-सदाचार का नितांत अभाव है। हम शिक्षा प्रणाली को तो बदल नहीं सकते, बदलना भी चाहे तो उसमें शायद इतना समय लगेगा जिसमें हमारी कुछ पीढ़िया निकल जायें। तो हम माता-पिता-पालक और समाज को अपने स्तर पर इस दुखद परिस्थिति पर समाधान ढूंढना होगा। स्कूलों-विद्यालयों में अच्छी शिक्षा तो मिल रही है लेकिन अच्छे संस्कार देने के लिए हमें अपने स्तर पर कोई व्यवस्था बनानी होगी। यही एकमात्र समाधान है। लेकिन वर्तमान समय में, आज के समय में जीवन की आपाधापी इतनी बढ़ गई है, जरूरतों को पूरा करने के लिए जीवन की भागदौड़ इतनी बढ़ गई है की ज्यादातर माता-पिता के लिए चाहकर भी व्यक्तिगत तौर पर शायद इस कार्य को, इस कमी को पूरा कर पाना संभव नहीं है। ज्यादातर माता-पिता के पास इसके लिए ना समय है और ना ही इस विषय की विशेष्यज्ञता और अनुभव है। इसीलिए हमने इस कार्य को करने के लिए, इस विषय "बाल संस्कार" में रूचि रखनेवाले, समय दे सकनेवाले समाजजनों के सहयोग से, समाज के स्तर पर करने की कोशिश की है। इसी कोशिश का पहला चरण है "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की स्थापना, जो माहेश्वरी अखाडा के तत्वावधान में, मार्गदर्शन में कार्य करेगा। हमारा लक्ष्य है की देशभर में, शहर-शहर में "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की 501 शाखाओं को स्थापन करके अपने समाज के बच्चों को अच्छे संस्कार देने का कार्य करना। हमें पूरा विश्वास है की भगवान् महेशजी की कृपा से समाजहित में किये जा रहे इस कार्य में समाज, समाज के लोग, सामाजिक कार्यकर्ता अपना भरपूर योगदान देंगे। "जय महेश बाल संस्कार परिवार" माहेश्वरी समाज की एक ऐसी इकाई, एक ऐसी संस्था, एक ऐसी व्यवस्था बनेगा जिसपर समस्त माहेश्वरी समाज को गर्व होगा। "जय महेश बाल संस्कार परिवार" माहेश्वरी संस्कृति, माहेश्वरी विरासत और माहेश्वरी गौरव का प्रमुख स्तम्भ कहलायेगा, आधारशिला बनेगा।
जय महेश बाल संस्कार परिवार की शुरूआत कैसे करें?
शुभ संकल्प : जय महेश बाल संस्कार परिवार की सेवा में जुड़ने हेतु सर्वप्रथम भगवान महेशजी के सन्मुख प्रार्थना व संकल्प करें।
प्रचार : जय महेश बाल संस्कार परिवार केन्द्र के शुभारंभ का दिन व समय निश्चित कर आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों के माता-पिता एवं अभिभावकों से मिलने जायें तथा उन्हें बाल संस्कार का महत्व, उद्देश्य व कार्यप्रणाली बतायें। फिर बाल संस्कार केन्द्र के बारे में संक्षेप में बताते हुए बच्चों को बाल संस्कार केन्द्र में भेजने हेतु प्रेरित करें।
केन्द्र स्थल के बाहर जय महेश बाल संस्कार परिवार का बैनर लगायें।
आस-पास के माहेश्वरी समाज से सम्बंधित मंदिरों के नोटिस बोर्ड पर भी बाल संस्कार केन्द्र शुरू होने की सूचना दे सकते हैं, वहां पर बड़ा पॉम्पलेट लगा सकते है।
अपने शहर के हरएक माहेश्वरी घर में जय महेश बाल संस्कार परिवार के बारेमें जानकारी का पॉम्पलेट भेज सकते है।
कार्यक्रम का दिन : केन्द्र सप्ताह में एक दिन चलायें (जैसे की, प्रत्येक रविवार को)।
स्थान : केन्द्र संचालक या अन्य किसी साधक का घर, मंदिर का परिसर, स्कूल अथवा कोई सार्वजनिक स्थल हो सकता है।
समय : सामान्य रूप से एक से डेढ़ घंटे का सत्र लिया जा सकता हैं। फिर भी जैसी व्यवस्था, परिस्थिति हो उसके अनुरूप समय की अवधि तय कर लेनी चाहिए।
बच्चों की उम्र : 6 से 13 वर्ष।
बैठक व्यवस्था : बालक एवं बालिकाओं को अलग-अलग बिठायें तथा उनके अभिभावकों और अन्य साधकों को पीछे बिठायें।
माहेश्वरी समाज के प्रथम आराध्य भगवान महेशजी अथवा महेश परिवार के तसबीर (फोटो) के समक्ष धूप-दीप आदि लगा करके वातावरण को सात्विक बनायें एवं फूल-माला आदि से सजावट कर कार्यक्रम की शुरूआत करें।
पाठयक्रम का उपयोग कैसे करें?
1) प्रति सप्ताह के निश्चित किये गए दिन (जैसे की, रविवार) को सत्र/वर्ग चलायें।
2) सत्र की शुरुवात में क्रमानुसार गणेशजी की वंदना, महेश अष्टक, ध्येय-गीत (इतनी शक्ति हमें देना दाता...) और पंचनमस्कार मंत्र अवश्य करायें।
3) हर सत्र के कार्यक्रम के सभी विषयों का पहले से ही अच्छी तरह अध्ययन किया करें। खाली समय में उन बातों को अपने बच्चों या मित्रों को बतायें तथा उन पर चर्चा करें, इससे उस सत्र के कार्यक्रम के सभी विषय आपको अच्छी तरह याद हो जायेंगे, जिससे आप बच्चों को अच्छी तरह समझा पायेंगे।
4) कार्यक्रम में बच्चों को जो-जो बातें सिखानी हैं, उनका एक संक्षिप्त नोट पहले ही बना लें। इससे आपको सभी बातें आसानी से याद रहेंगी तथा कोई विषय छूटने की समस्या भी नहीं रहेगी।
5) बच्चों को एक नोटबुक बनाने को कहें, जिसमें वे गृहकार्य करेंगे और हर सप्ताह बतायी जानेवाली महत्त्वपूर्ण बातें लिखेंगे।
6) हर सप्ताह दिये गये गृहकार्य के बारे में अगले सप्ताह बच्चों से पूछें।
7) प्रति सत्र में सिखाये जाने वाले, किये जानेवाले सूर्यनमस्कार, योगासन, प्राणायाम आदि योग साधनाओं की विस्तृत जानकारी हेतु योग की प्रमाणित पुस्तकों को पढ़ें, इन योग क्रियाओं का प्रैक्टिकल अभ्यास करें। इस बारेमें अधिक जानकारी के लिए माहेश्वरी अखाड़ा के योग शिक्षकों से भी संपर्क कर सकते है।
8) निर्धारित समय में सभी विषयों को पूरा करने का प्रयास करें।
बाल संस्कार वर्ग संचालन विषय सूचि
1) वार्तालाप
2) प्रार्थना, स्तुति आदि
3) 5 बार दीर्घ स्वसन
4) जीवन के बारेमें ज्ञान देनेवाले संस्कृत सुविचार या श्लोक लें और उसके अर्थ बताएं, संभव हो तो छोटीसी कहानी या उदाहरण के माध्यम से इसे समझाये। संस्कृत श्लोक थोड़े शब्दों में अथाह ज्ञान को समाये हुए रहते हैं यह प्राचीनतम भाषा हैं जिसे सभी भाषाओँ का मूल माना जाता हैं।
5) प्रेरक कथा, माहेश्वरी समाज में जन्मे महापुरुषों के बारेमें जानकारी, विशेष उपलब्धियां हासिल करनेवाले माहेश्वरियों के बारेमें जानकारी, माहेश्वरी संस्कृति तथा माहेश्वरी इतिहास के बारे में जानकारी दें।
6) भजन, बालगीत, देशभक्ति गीत आदि लें।
7) बच्चों में स्वास्थ्य के प्रति सजगता, ऋतु नुसार आहार के प्रति सजगता, सही-गलत समझने और इनमें फर्क करने के बारेमें सजगता जागृत करने की दिशा में मार्गदर्शन करें।
8) हँसते-खेलते पायें ज्ञान: ज्ञानवर्धक खेल, मैदानी खेल, ज्ञान के चुटकुले आदि तथा व्यक्तित्व विकास के प्रयोग (निबंध प्रतियोगिता, वक्तृत्व स्पर्धा, वाद-प्रतिवाद स्पर्धा आदि) लें।
9) यौगिक प्रयोग : व्यायाम, योगासन, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार आदि लें।
10) शिव महापुराण पर आधारित कथा-प्रसंग।
11) भगवान गणेशजी की आरती, महेशजी की आरती व प्रसाद वितरण।
टिप्पणी : बीच-बीच में हास्य प्रयोग करवायें और अंत में गृहपाठ आदि लें।
नियमावली
जय महेश बाल संस्कार परिवार का केन्द्र/शाखा खोलने एवं संचालित करने के लिए निम्नलिखित नियमों का पालन करना अनिवार्य है।
1) बाल संस्कार केन्द्र/शिविर में बालक-बालिकाओं को पूर्णतः निशुल्क प्रवेश दिया जायेगा। केन्द्र की ओर से किसी भी प्रकार की फीस, चंदा आदि एकत्रित नहीं किया जायेगा और न ही केन्द्र के नाम कोई रसीद बुक छपायी जायेगी।
2) बाल संस्कार केन्द्र/शिविर का आर्थिक प्रबन्धन स्थानीय "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की कार्यकारिणी स्वयं करेगी। केन्द्र को आर्थिक सहायता प्रदान करने के इच्छुक व्यक्ति स्थानीय "जय महेश बाल संस्कार परिवार" की कार्यकारिणी से संपर्क कर सकते हैं। बाल संस्कार केन्द्र चलाने वाले शिक्षक-शिक्षिका अगर यातायात और धन के अभाव के कारण बाल संस्कार केन्द्र नहीं चला पाते हों तो स्थानीय कार्यकारिणी अथवा बालकों के अभिभावक आपस में मिल कर सलाह-मशविरा करके उनके मासिक खर्च की सुविधा कर सकते है।
3) मुख्यालय के उपरोक्त नियमों के अतिरिक्त समय-समय पर संशोधित व नवनिर्मित अन्य नीति-नियम भी केन्द्र व इससे जुड़ी कार्यकारिणी के लिए बाध्य होंगे।
4) स्थानीय "जय महेश बाल संस्कार परिवार" का अलग से कोई सिम्बॉल नहीं होगा। केंद्रीय मुख्यालय द्वारा जारी सिम्बॉल का ही इस्तेमाल करना अनिवार्य है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय कार्यकारिणी के ‘लेटर पैड’ व केंद्रीय मुख्यालय द्वारा जारी सिम्बॉल का उपयोग किया जा सकता है।
5) स्थानीय संचालन कार्यकारिणी/केन्द्र संचालक ऐसे कोई कदम नहीं उठायेंगे, जो माहेश्वरी अखाड़ा तथा माहेश्वरी समाज के आदर्शों के विपरीत पड़ते हों अथवा जिनके संबंध में मुख्यालय द्वारा कोई स्पष्ट निर्देश न दिया गया हो। मुख्यालय द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देशित नीति-नियमों के अनुसार ही केन्द्र/शिविर का संचालन किया जाना अनिवार्य है। अगर नियमावली से किसी मुद्दे पर स्पष्ट निर्देश न मिले तो उस विषय में मुख्यालय से स्पष्टीकरण प्राप्त कर सकते है।
प्रस्तावित केन्द्र संचालक हेतु अनिवार्य योग्यताएँ
(क) प्रस्तावित केन्द्र संचालक स्वेच्छापूर्वक बाल संस्कार के कार्य से जुड़ने का इच्छुक हो तथा कार्यक्रम चलाने की स्थिति में हो।
(ख) वह व्यसनमुक्त, चरित्रवान हो।
(ग) वह दिवालिया, अथवा किसी संक्रामक रोग से पीड़ित न हो।
(घ) उसमें अपने समाज के लिए, समाज के हित में कुछ ना कुछ योगदान देने की चाहत हो।
पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन)
आपके अपने शहर में "जय महेश बाल संस्कार परिवार" के शुभारम्भ के पश्चात केन्द्र संचालक अथवा कार्यकारिणी सचिव द्वारा शीघ्र ही आवेदन पत्र भरकर माहेश्वरी अखाडा के मुख्यालय भेजें। ताकि जल्द से जल्द उनके केन्द्र को मुख्यालय द्वारा मान्यता हेतु पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त हो सके। पंजीकरण हेतु आवश्यक आवेदन-पत्र के लिए अथवा इस सन्दर्भ में अधिक जानकारी के लिए माहेश्वरी अखाडा कार्यालय के संपर्क क्रमांक (02442) 227073 पर संपर्क करें।
नोटः अगर आप एक से अधिक केन्द्र चला रहे हैं तो आपको हर केन्द्र का अलग-अलग पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त होगा। आवेदन पत्र स्पष्ट अक्षरों में भरें।
बाल संस्कार परिवार केंद्र सञ्चालन हेतु संचालक निम्नलिखित links को देखें।
माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास
"माहेश्वरी" सिर्फ एक नाम नहीं है बल्कि एक ब्रांड है।
महेश नवमी- माहेश्वरी समाज का सबसे बड़ा वार्षिक पर्व
जानिए, आजसे कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति
बाल संस्कार शिविर/वर्ग के संचालन में उपयोगी सामग्री
श्री गणेश वंदना
आदि-पूज्यं गणाध्यक्षं, उमापुत्रं विनायकम्
मंगलं परमं रूपं, श्री-गणेशं नमाम्यहम्।
प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम्
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुःकामार्थसिद्धये॥
ध्येयगीत
इतनी शक्ति हमें देना दाता
मन का विश्वास कमजोर हो ना।
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना॥धृ॥
दूर अज्ञान के हो अंधेरे,
तू हमें ज्ञान की रौशनी दे।
हर बुराई से बचते रहें हम,
जितनी भी दे भली ज़िन्दगी दे॥
बैर हो ना किसी का किसी से
भावना मन में बदले की हो ना।
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना॥1॥
हम ना सोचें हमें क्या मिला है
हम ये सोचे किया क्या है अर्पण।
फूल खुशियों के बाँटे सभी को
सब का जीवन ही बन जाए मधुबन॥
अपनी करुणा का जल तू बहा के
कर दे पावन हर एक मन का कोना।
हम चले नेक रस्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना॥2॥
बच्चो के लिए शिक्षाप्रद कहानियाँ
कहानी : शेर और किशमिश
एक खूबसूरत गांव था। चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ। पहाड़ी के पीछे एक शेर रहता था। जब भी वह ऊंचाई पर चढ़कर गरजता था तो गांव वाले डर के मारे कांपने लगते थे।
खिड़की के नीचे बैठा शेर सोच रहा था- 'अजीब बच्चा है यह! काश मैं उसे देख सकता। यह न तो लोमड़ी से डरता है, न भालू से।' उसे फिर जोर की भूख सताने लगी। शेर खड़ा हो गया। बच्चा अभी भी रोए जा रहा था।
फिर माँ की आवाज आई, 'देखो... देखो... देखो, शेर आ गया शेर'। वह रहा खिड़की के नीचे।' लेकिन बच्चे का रोना, फिर भी बंद नहीं हुआ। यह सुनकर शेर को बहुत ताज्जुब हुआ और बच्चे की बहादुरी से उसको डर लगने लगा। उसे चक्कर आने लगे और बेहोश-सा हो गया। शेर ने सोचा। 'वह बच्चे की माँ कैसे जान गई कि मैं खिड़की के पास हूं।' थोड़ी देर बाद उसकी जान में जान आई और उसने खिड़की के अंदर झांका। बच्चा अभी भी रो रहा था। उसे शेर का नाम सुनकर भी डर नहीं लगा।
वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और संतरे वाले को दिखाया और बोला, 'बता इसकी कीमत क्या है?' संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे जा।' वह आदमी संतरे वाले से बोला, 'गुरु ने कहा है, इसे बेचना नहीं है।'
और आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा, 'एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।' उस आदमी ने कहा, 'मुझे इसे बेचना नहीं है, मेरे गुरु ने मना किया है।'
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया। जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, उसपर रूबी को रखा, फिर उस बेशकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका, फिर जौहरी बोला, 'कहां से लाया है ये बेशकीमती रुबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती। ये तो बेशकीमती है।'
वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे गुरु के पास गया और अपनी आपबीती बताई और बोला, 'अब बताओ गुरुजी, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?'
गुरु बोले, 'तूने पहले पत्थर को संतरे वाले को दिखाया, उसने इसकी कीमत 12 संतरे बताई। आगे सब्जी वाले के पास गया, उसने इसकी कीमत 1 बोरी आलू बताई। आगे सुनार ने 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे बेशकीमती बताया। बस ऐसे ही मानवीय जीवन का मूल्य है, तेरा मानवीय मूल्य है। इसे तू 12 संतरे में बेच दे या 1 बोरी आलू में या 2 करोड़ में या फिर इसे बेशकीमती बना ले, ये तेरी सोच पर निर्भर है कि तू जीवन को किस नजर से देखता है।'
कड़ाके की ठंड का समय था। सारी दुनिया बर्फ से ढंकी हुई थी। शेर बहुत भूखा था। उसने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था। शिकार के लिए वह नीचे उतरा और गांव में घुस गया। वह शिकार की ताक में घूम रहा था। दूर से उसे एक झोपड़ी दिखाई दी। खिड़की में से टिमटिमाते दिए की रोशनी बाहर आ रही थी। शेर ने सोचा यहां कुछ न कुछ खाने को जरूर मिल जाएगा। वह छुपकर खिड़की के नीचे बैठ गया।
झोपड़ी के अंदर से बच्चे के रोने की आवाज आई। ऊं...आं... ऊं...आं..। वह लगातार रोता जा रहा था। शेर इधर-उधर देखकर मकान में घुसने ही वाला था कि उसे औरत की आवाज आई- 'चुप रहे बेटा। देखो लोमड़ी आ रही है। बाप रे, कितनी बड़ी लोमड़ी है? कितना बड़ा मुंह है इसका। कितना डर लगता है उसको देखकर।' लेकिन बच्चे ने रोना बंद नहीं किया। मां ने फिर कहा- 'वह देखो, भालू आ गया... भालू खिड़की के बाहर बैठा है। बंद करो रोना नहीं तो भालू अंदर आ जाएगा', लेकिन बच्चे का रोना जारी रहा। उसे डराने का कोई असर नहीं पड़ा।खिड़की के नीचे बैठा शेर सोच रहा था- 'अजीब बच्चा है यह! काश मैं उसे देख सकता। यह न तो लोमड़ी से डरता है, न भालू से।' उसे फिर जोर की भूख सताने लगी। शेर खड़ा हो गया। बच्चा अभी भी रोए जा रहा था।
फिर माँ की आवाज आई, 'देखो... देखो... देखो, शेर आ गया शेर'। वह रहा खिड़की के नीचे।' लेकिन बच्चे का रोना, फिर भी बंद नहीं हुआ। यह सुनकर शेर को बहुत ताज्जुब हुआ और बच्चे की बहादुरी से उसको डर लगने लगा। उसे चक्कर आने लगे और बेहोश-सा हो गया। शेर ने सोचा। 'वह बच्चे की माँ कैसे जान गई कि मैं खिड़की के पास हूं।' थोड़ी देर बाद उसकी जान में जान आई और उसने खिड़की के अंदर झांका। बच्चा अभी भी रो रहा था। उसे शेर का नाम सुनकर भी डर नहीं लगा।
शेर ने आज तक ऐसा कोई जीव नहीं देखा जो उससे न डरता हो। वह तो यही समझता था कि उसका नाम सुनकर दुनिया के सारे जीव डर के मारे कांपने लगते हैं, लेकिन इस विचित्र बच्चे ने मेरी भी कोई परवाह नहीं की। उसे किसी भी चीज का डर नहीं है। शेर का भी नहीं। अब शेर को चिंता होने लगी। तभी मां की फिर आवाज सुनाई दी। 'लो अब चुप रहो। यह देखो किशमिश...।' बच्चे ने फौरन रोना बंद कर दिया। बिलकुल सन्नाटा छा गया।
शेर ने सोचा- 'यह किशमिश कौन है? बहुत ही ताकदवर, बहुत ही खूंखार होगा।' अब तो शेर भी किशमिश के बारे में सोचकर डरने लगा। उसी समय कोई भारी चीज धम्म से उसकी पीठ पर गिरी। शेर अपनी जान बचाकर वहां से भागा। उसने सोचा कि उसकी पीठ पर किशमिश ही कूदा होगा।
असल में उसकी पीठ पर एक चोर कूदा था, जो उस घर में गाय-भैंस चुराने आया था। अंधेरे में शेर को गाय समझकर वह छत पर से उसकी पीठ पर कूद गया। डरा तो चोर भी। उसकी तो जान ही निकल गई जब उसे पता चला कि वह शेर की पीठ पर सवार है, गाय की पीठ पर नहीं।
शेर बहुत तेजी से पहाड़ी की ओर दौड़ा, ताकि किशमिश नीचे गिर पड़े, लेकिन चोर ने भी कसकर शेर को पकड़ रखा था। वह जानता था कि यदि वह नीचे गिरा तो शेर उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा। शेर को अपनी जान का डर था और चोर को अपनी जान का।
थोड़ी देर में सुबह का उजाला होने लगा। चोर को एक पेड़ की डाली दिखाई दी। उसने जोर से डाली पकड़ी और तेजी से पेड़ के ऊपर चढ़कर छिप गया। शेर की पीठ से छुटकारा पाकर उसने चैन की सांस ली। भगवान का धन्यवाद किया जान बचाने के लिए।
शेर ने भी चैन की सांस ली- 'भगवान को धन्यवाद मेरी जान बचाने के लिए। किशमिश तो सचमुच बहुत भयानक जीव है' और वह भूखा-प्यासा वापस पहाड़ी पर अपनी गुफा में चला गया।
(इस कहानी को सुनाने के बाद एक एक बालक, बालिका से पूछे की उसे इस कहानी से क्या सिख मिली?)
कहानी : जीवन का मूल्य
यह कहानी पुराने समय की है। एक दिन एक आदमी गुरु के पास गया और उनसे कहा, 'बताइए गुरुजी, जीवन का मूल्य क्या है?' गुरु ने उसे एक पत्थर दिया और कहा, 'जा और इस पत्थर का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना पत्थर को बेचना नहीं है।'
वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और संतरे वाले को दिखाया और बोला, 'बता इसकी कीमत क्या है?' संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे जा।' वह आदमी संतरे वाले से बोला, 'गुरु ने कहा है, इसे बेचना नहीं है।'
और आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा, 'एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।' उस आदमी ने कहा, 'मुझे इसे बेचना नहीं है, मेरे गुरु ने मना किया है।'
आगे एक सोना बेचने वाले सुनार के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '50 लाख में बेच दे'। उसने मना कर दिया तो सुनार बोला, '2 करोड़ में दे दे या बता इसकी कीमत जो मांगेगा, वह दूंगा तुझे...।' उस आदमी ने सुनार से कहा, 'मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है।'
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया। जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, उसपर रूबी को रखा, फिर उस बेशकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका, फिर जौहरी बोला, 'कहां से लाया है ये बेशकीमती रुबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती। ये तो बेशकीमती है।'
वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे गुरु के पास गया और अपनी आपबीती बताई और बोला, 'अब बताओ गुरुजी, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?'
गुरु बोले, 'तूने पहले पत्थर को संतरे वाले को दिखाया, उसने इसकी कीमत 12 संतरे बताई। आगे सब्जी वाले के पास गया, उसने इसकी कीमत 1 बोरी आलू बताई। आगे सुनार ने 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे बेशकीमती बताया। बस ऐसे ही मानवीय जीवन का मूल्य है, तेरा मानवीय मूल्य है। इसे तू 12 संतरे में बेच दे या 1 बोरी आलू में या 2 करोड़ में या फिर इसे बेशकीमती बना ले, ये तेरी सोच पर निर्भर है कि तू जीवन को किस नजर से देखता है।'
सीख : हमें कभी भी अपनी सोच का दायरा कम नहीं होने देना चाहिए।
कहानी : एकता की शक्ति
एक बार हाथ की पाँचों उंगलियों में आपस में झगड़ा हो गया। वे पाँचों खुद को एक दूसरे से बड़ा सिद्ध करने की कोशिश में लगे थे। अंगूठा बोला की मैं सबसे बड़ा हूँ, उसके पास वाली उंगली बोली मैं सबसे बड़ी हूँ; इसी तरह सारी उंगलियां खुद को बड़ा सिद्ध करने में लगी थी। जब निर्णय नहीं हो पाया तो वे सब इस मामले को लेकर अदालत में गये।
न्यायाधीश ने सारा माजरा सुना और उन पाँचों से बोला की पहले आप लोग सिद्ध करो की कैसे तुम सबसे बड़े हो? अंगूठा बोला मैं सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा हूँ क्यूं की लोग मुझे हस्ताक्षर के स्थान पर प्रयोग करते हैं। पास वाली उंगली बोली की लोग मुझे किसी इंसान की पहचान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। उसके पास वाली उंगली ने कहा की आप लोगों ने मुझे नापा नहीं अन्यथा मैं ही सबसे बड़ी हूँ। उसके पास वाली उंगली बोली मैं सबसे ज़्यादा अमीर हूँ क्यूंकी लोग हीरे और जवाहरात और अंगूठी मुझी में पहनते हैं। इसी तरह सभी ने अपनी अलग अलग प्रशन्शा की और खुद को औरों से बड़ा बताया।
न्यायाधीश ने अब एक रसगुल्ला माँगाया और अंगूठे से कहा की इसे उठाओ, उंगुठे ने भरपूर ज़ोर लगाया लेकिन रसगुल्ले को नहीं उठा सका। इसके बाद सारी उंगलियों ने एक एक करके कोशिश की लेकिन सभी विफल रहे। अंत में न्यायाधीश ने सबको मिलकर रसगुल्ला उठाने का आदेश दिया तो सबने मिलकर झट से और बड़ी आसानी से रसगुल्ला उठा लिया। फ़ैसला हो चुका था, न्यायाधीश ने फ़ैसला सुनाया कि तुम सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हो और अकेले रहकर तुम्हारी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, जबकि संगठित रहकर तुम कठिन से कठिन काम आसानी से कर सकते हो।
सिख : संगठित रहनेमें, एकता में ही शक्ति है।
कहानी : स्वास्थ्य है असली धन-सम्पदा
एक शहर में एक अमीर व्यक्ति रहता था। वह पैसे से तो बहुत धनी था लेकिन शरीर और सेहत से बहुत ही गरीब। दरअसल वह हमेशा पैसा कमाने की ही सोचता रहता था, दिन रात पैसा कमाने के लिए मेहनत करता लेकिन अपने शरीर के लिए उसके पास बिल्कुल समय नहीं था। फलस्वरूप अमीर होने के बावजूद उसे कई नई-नई प्रकार की बिमारियों ने घेर लिया और शरीर भी धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा था, लेकिन वह इस सब पर ध्यान नहीं देता और हमेशा पैसे कमाने में ही लगा रहता था।
एक दिन वह थकाहारा शाम को घर लौटा और जाकर सीधा बिस्तर पे लेट गया। धर्मपत्नी जी ने खाना लगाया लेकिन अत्यधिक थके होने के कारण उसने खाना खाने से मना कर दिया और भूखा ही सो गया। आधी रात को उसके शरीर में बहुत तेज दर्द हुआ, वह कुछ समझ नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है? अचानक उसके सामने एक विचित्र सी आकृति आकर खड़ी हो गयी और बोली – हे मानव मैं तुम्हारी आत्मा हूँ और आज से मैं तुम्हारा शरीर छोड़ कर जा रही हूँ।
वह व्यक्ति घबराया सा बोला – आप मेरा शरीर छोड़ कर क्यों जाना चाहती हो मैंने इतनी मेहनत से इतना पैसा और वैभव कमाया है, इतना आलिशान बंगला बनवाया है यहाँ तुम्हें रहने में क्या दिक्कत है?
आत्मा बोली – हे मानव सुनो मेरा घर ये आलिशान बंगला नहीं तुम्हारा शरीर है, जो बहुत दुर्बल हो गया है जिसे अनेकों बिमारियों ने घेर लिया है। सोचो अगर तुम्हें बंगले की बजाए किसी टूटी झोपड़ी में रहना पड़े तो तुम्हें कितना दुःख होगा, उस प्रकार तुमने अपने शरीर यानि मेरे घर को भी टूटा फूटा और खण्डर बना लिया है, जिसमें मैं अब और नहीं रह सकती।
इतना कहकर, आत्मा ने उस व्यक्ति के शरीर को त्याग दिया और जीवन भर सिर्फ पैसे कमाने के लालच कि वजह से उस व्यक्ति को कम उम्र में ही अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
सिख : पैसा अथवा सोने-चांदी के टुकड़े नहीं बल्कि अपना शरीर और शरीर का “स्वास्थ्य” असली धन है, सबसे बड़ी पूंजी है। ये सिर्फ एक कहानी नहीं है बल्कि जीवन की सच्चाई है। दुनिया में बहुत सारे विद्यार्थी पढाई के चक्कर में और बहुत सारे युवा/बुजर्ग पैसा कमाने के चक्कर में अपना स्वास्थ्य गवां देते हैं, वे लोग ये नहीं सोचते कि हमारी आत्मा और प्राण को किसी आलिशान बंगले या पैसे की जरुरत नहीं, बल्कि एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता है।
कहानी : रिश्ता पतंग और डोर का
एक बार एक गांव मेंं पतंग उड़ाने केे त्योहार का आयोजन हुआ। गांव का एक आठ साल का बच्चा दीपू भी अपने पिता के साथ इस त्योहार में गया। दीपू रंगीन पतंगों से भरा आकाश देखकर बहुत खुश हो गया। उसने अपने पिता से उसे एक पतंग और एक मांझा (धागे का रोल) दिलाने के लिए कहा ताकि वह भी पतंग उड़ा सके। दीपू के पिता दुकान में गए और उन्होनें पतंग और धागे का एक रोल खरीद्कर अपने बेटे को दे दिया।
अब दीपू ने पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। जल्द ही, उसकी पतंग आकाश में ऊंचा उड़ने लगी। थोड़ी देर के बाद, उसने अपने पिता से कहा, पिताजी, ऐसा लगता है कि धागा पतंग को उंचा उड़ने से रोक रहा है, अगर हम इसे तोड़ते हैं, तो पतंग इससे भी और ज्यादा उंची उड़ेगी। क्या हम इसे तोड़ दें? “तो, पिता ने रोलर से धागा काटकर अलग कर दिया। पतंग थोड़ा ऊंचा जाना शुरू हो गयी। यह देखकर दीपू बहुत खुश हुआ। लेकिन फिर, धीरे-धीरे पतंग ने नीचे आना शुरू कर दिया। और, जल्द ही पतंग एक कांटेदार पेड़ पर गिर गयी और उसमे उलझकर फैट गई। दीपू को यह देखकर आश्चर्य हुआ। उसने धागे को काटकर पतंग को मुक्त कर दिया था ताकि वह ऊंची उड़ान भर सके, लेकिन इसके बजाय, यह गिर पड़ी। उसने अपने पिता से पूछा, "पिताजी, मैंने सोचा था कि धागे को काटने के बाद, पतंग खुलकर उंचा उड़ सकती है । लेकिन यह क्यों गिर गयी?"
पिता ने समझाया, “बेटा, जब हम जीवन की ऊंचाई पर रहते हैं, तब अक्सर सोचते हैं कि कुछ चीजें जिनके साथ हम बंधे हैं और वे हमें आगे बढ़ने से रोक रही हैं। धागा पतंग को ऊंचा उड़ने से नहीं रोक रहा था, बल्कि जब हवा धीमी हो रही थी उस वक़्त धागा पतंग को ऊंचा रहने में मदद कर रहा था, और जब हवा तेज हो गयी तब तुमने धागे की मदद से ही पतंग को उचित दिशा में ऊपर जाने में मदद की। और जब हमने धागे को काटकर छोड़ दिया, तो धागे के माध्यम से पतंग को जो सहारा मिल रहा था वह खत्म हो गया और पतंग टूट कर गिर गयी"। दीपू को बात समझ में आ गयी।
सीख : कभी-कभी हम महसूस करते हैं कि यदि हम अपने परिवार, घर से बंधे नहीं हो तो हम जल्दी से प्रगति कर सकते हैं और हमारे जीवन में नई ऊंचाइयों तक पहुंच सकते हैं लेकिन, हम यह महसूस नही करते कि हमारा परिवार, हमारे प्रियजन ही हमें जीवन के कठिन समय से उबरने में मदद करते हैं और हमें अपने जीवन में आगे बढने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे हमारे लिये रुकावट नही है, बल्कि हमारा सहारा है।
संस्कृत श्लोकों का संग्रह
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ।।
अर्थ : किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
अर्थ : किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है – नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ।।
अर्थ : निम्न कोटि के लोगो को सिर्फ धन की इच्छा रहती है, ऐसे लोगो को सम्मान से मतलब नहीं होता। एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा करता है वही एक उच्च कोटि के व्यक्ति के सम्मान ही मायने रखता है। सम्मान धन से अधिक मूल्यवान है।
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः ।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ।।
अर्थ : सौ लोगो में एक शूरवीर होता है, हजार लोगो में एक विद्वान होता है, दस हजार लोगो में एक अच्छा वक्ता होता है वही लाखो में बस एक ही दानी होता है।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है। मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र परिश्रम होता है क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रहता।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खो सौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थ : जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है वह व्यक्ति बलवान होने पर भी असमर्थ, धनवान होने पर भी निर्धन व ज्ञानी होने पर भी मुर्ख होता है।
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ।।
अर्थ : किताब में रखी विद्या व दूसरे के हाथो में गया हुआ धन कभी भी जरुरत के समय काम नहीं आते।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।।
अर्थ : बिना सोचे – समझे आवेश में कोई काम नहीं करना चाहिए क्योंकि विवेक में न रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। वही जो व्यक्ति सोच – समझ कर कार्य करता है माँ लक्ष्मी उसी का चुनाव खुद करती है।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।
अर्थ : उद्यम, यानि मेहनत से ही कार्य पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि शेर को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।
वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।
अर्थ : जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन: ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं ।।
अर्थ : बड़ों का अभिवादन करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल - ये चार चीजें बढ़ती हैं।
न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु: ।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा ।।
अर्थ : न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थ : जो व्यक्ति पूरी निष्ठा से अपना धर्म नहीं निभाता वो शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल हैं, धनी होते हुए भी गरीब हैं और पढ़े लिखे होते हुये भी अज्ञानी हैं।
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ।।
अर्थ- जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव माता भवानी सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है।
।। शुभं भवतु ।।
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